जीवन की इतने युद्ध लड़े
जीवन की इतने युद्ध लड़े
लड़े और जीते भी
पर पता नहीं उस दिन के बाद क्या हुआ
न तो मन एकाग्र हो पाया
न ही ये जगह सुहाया
ये वो जगह थी जिससे मन जुड़ा था
पर पता नहीं उस दिन के बाद जाने क्या हुआ
न दुख रहा अब पेड़ पौधों से बिछड़ने का
जो मेरी बातें सुना करते थे बिना कान के बड़े ध्यान से
न ही अब उस बड़े पत्थर से लगाव रहा
जिस पर मैं बैठकर ख़्वाब बुनती
जब मुझे इनसब की परवाह नही
तो इंसानों की कैसी होगी
मुझे अब बस खुद की परवाह करनी होगी
ताकि मैं दोबारा से जुड़ पाऊं खुद से
खुद को खुद के करीब ला पाऊं
तभी मुझे फिर से दुनिया खूबसूरत लगेगी
जैसे पहले लगा करती थी …