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17 Jan 2023 · 4 min read

*जीवन की अंतिम घटना है मृत्यु (हास्य-व्यंग्य-विचार)*

जीवन की अंतिम घटना है मृत्यु (हास्य-व्यंग्य-विचार)
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मरते समय सबसे अधिक तनाव में वह व्यक्ति होता है, जिसकी मृत्यु होने जा रही होती है । उसका तो जीवन ही समाप्त हो रहा होता है । अब बचा क्या है ? मरने के बाद कुछ बाकी नहीं बचता ।
मरने वाला अपने अतीत पर दृष्टिपात करता है और विचार करता है कि उसने कितने बड़े-बड़े कार्य किए हैं । बड़े-बड़े कार्यों से अभिप्राय अनेक बार पॉंच-छह बच्चों की शादियां करना और उनको नौकरी या रोजगार से लगाना भी होता है । सोच कर उसका दिल भर आता है । वह इस संसार से जाना नहीं चाहता। पूरी ताकत लगाकर वह आंखें खोलता है और सृष्टि को प्यार से निहारता है । मरने वाले के मन में जो विचार चल रहा होता है, वह अलग किस्म का होता है। लेकिन जो उसके इर्द-गिर्द चारों तरफ लोग बिखरे हुए होते हैं, उनके लिए यह संसार किसी एक के मरने से समाप्त थोड़े ही होने जा रहा है । वे तो इस बात पर विचार करते हैं कि एक दिन सबको जाना है। सब जाते हैं । यह जो व्यक्ति मृत्यु शैया पर लेटा हुआ है, यह भी चला जाएगा । साधारण-सी घटना है …बस । बाकी लोगों की चिंता इस बात की रहती है कि मामला अधिक देर तक लटका न रहे ।
“क्यों भाई, क्या पोजीशन चल रही है ? “-छुट्टी लेकर वह व्यक्ति जो तीन दिन की आया था और सोचता था कि इन तीन दिनों में तीजा निपटा कर चला जाएगा, वह मरने वाले की सांसो के अटकने के साथ ही अधर में लटक जाता है । अब जाए कैसे ? मरने वाले का तो यह पता नहीं कि घंटा-भर में मृत्यु हो जाए या अगला दिन भी खिंच जाए ? तीन दिन में फिर मामला निबटने वाला नहीं होता ! जो बेटे-बहुएं इससे पहले भी एक-दो बार मृत्यु-शैया के चक्कर में छुट्टी लेकर आए थे और फिर खाली हाथ वापस चले गए, वह सबसे ज्यादा परेशान होते हैं।
सबकी अपनी-अपनी चिंताएं होती हैं । आजकल समय किसके पास है ? अगर मरना है, तो सबसे अच्छा समय दोपहर दो से ढाई बजे का रहता है । सब लोग उस दिन के काम-धंधे से भी निबट जाते हैं और दाह-संस्कार भी चटपट हो जाता है । फिर तीसरे दिन चिता में से राख और अस्थियां ले जाकर गंगा में प्रवाहित करना रह जाता है ।
शोक आदमी कितने दिन मनाए ? और पचास काम भी तो रहते हैं। इसलिए ट्वेन्टी-ट्वेन्टी के मैच की तरह एक दिन में सारे काम निपटाने का प्रचलन भी जोर पकड़ता जा रहा है ।
देखा जाए तो इसमें बुराई भी नहीं है । सुविधा के अनुसार ही सबको जीवन जीना होता है। सुबह मरे, दोपहर को शव-यात्रा गंगा जी पर ले गए । वहीं पर अस्थियां नदी में प्रवाहित कर दीं। तत्पश्चात तीजा, दसवॉं, तेरहीं आदि के कार्य भी संपन्न करा दिए। इस तरह सुबह से शाम तक के पैकेज में सारी चीजें निबट जाती हैं। मरने वाले के दृष्टिकोण से हम जीवित बचे रहने वाले लोगों के दृष्टिकोण की तुलना नहीं कर सकते । किसी को दफ्तर जाना है, किसी को दुकान खोलनी है, किसी को अपनी आगे की पढ़ाई के लिए सफर तय करना है । मरने वाले को तो अब आत्मा के रूप में भूख-प्यास नहीं लगती । लेकिन जो जीवित रह गए हैं, उन्हें तो वर्तमान भी देखना पड़ता है और भविष्य के बारे में भी सोचना पड़ता है ।
परंपरावादी कार्यों में इतनी लूट-खसोट मची हुई है तथा भोले-भाले व्यक्तियों को मूर्ख बनाने की ऐसी प्रवृत्ति चल रही है कि थोड़ा भी समझदार व्यक्ति हुआ तो वह इन सब से पिंड छुड़ाकर भागने में ही अकलमंदी मानता है । लंबी-चौड़ी लिस्ट , मोटी दान-दक्षिणा ,तरह-तरह के रस्म-रिवाजों के अनुशासन -इन सब में भला कोई जीवित व्यक्ति स्वयं को मरणासन्न स्थिति में कैसे पहुंचा सकता है ?
अंत में मृत्युभोज सिर पर सवार रहता है । उसके खर्चे की भी कोई कम मुसीबत नहीं है । वह पता नहीं किस को अच्छा लगता है ? मृत्युभोज पता नहीं कौन खाना चाहता है ? मृत्युभोज खिलाना कौन चाहता है ? लेकिन फिर भी यह चल रहा है, क्योंकि पहले से चला आ रहा है । न जाने कितने दशकों से इसी चक्कर में कुछ रिवाज चले आ रहे हैं कि वह पुराने हैं और हमेशा से चलते आ रहे हैं ।
मृतक की आत्मा की शांति के लिए समाज हमेशा से कुछ न कुछ करता रहा है । करना चाहता भी है, लेकिन अब मृत्यु, रस्म-रिवाज, समय का अभाव, खर्च आदि सब कुछ इतना गड्डमड्ड हो गया है कि चीजें कितनी तेजी से बदल जाऍं, कोई नहीं कह सकता।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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