जीवन का मर्म
मानव जीवन मिला रे प्राणी
कर नेकी कर कुछ सत्कर्म
परोपकार करने में ओ बंधु
न करना तू जरा भी शर्म।
अरे भला करके दुखियों का
तू कर ले कुछ पुण्य कुछ धर्म
परोपकार करने में ओ बंधु
न करना तू जरा भी शर्म।
मन न अपना कठोर बना तू
हृदय को रखना सदा तू नर्म
परोपकार करने में ओ बंधु
न करना तू जरा भी शर्म।
दिमाग को रखना तू शीतल
न रखना बिल्कुल भी तू गर्म
परोपकार करने में ओ बंधु
न करना तू जरा भी शर्म।
जो बोओगे वही काटोगे
जीवन का तो यही है मर्म
परोपकार करने में ओ बंधु
न करना तू जरा भी शर्म।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना