जाल ….
जाल ….
बहती रहती है
एक नदी सी
मेरे हाथों की
अनगिनित अबोली रेखाओं में
मैं डाले रहता हूँ एक जाल
न जाने क्या पकड़ने के लिए
हाथ आती हैं तो बस
कुछ यातनाएँ ,दुःख और
काँच की किर्चियों सी
चुभती सच्चाईयाँ
डसते हैं जिनके स्पर्श
मेरे अंतस में बहती
जीत और हार की धाराओं को
काले अँधेरों में भी मुझे
अव्यक्त अभियक्तियों के रँग
वेदना के सुरों पर
नृत्य करते नज़र आते हैं
नदी
हाथों की रेखाओं में
अविरल बहती रहती है
जाल में
सब कुछ मिलता है
मगर
नहीं मिलती तो बस
ज़िंदगी नहीं मिलती
जाल
स्वयं से लिपट जाता है
ज़िंदगी को ढूंढता इंसान
पानी सा बिखर जाता है
सुशील सरना/