जाल पे जाल है
है अजब दास्ताँ, जाल पे जाल है
इश्क़ में ज़ालिमों की, कोई चाल है
मुझको आहट से, पहचान लेती है वो
आँख में उसकी, किस जीव का बाल है
सादगी से मुझे क़त्ल करती है वो
पूछती है फिर कि, मेरा क्या ख़्याल है
हर अदा भेड़ियों-सी मिली है उसे
ऐसी मासूमियत, भेड़ की खाल है
जाने क्या सोच के रब ने उसको गढ़ा
जी का जंजाल है, सुर है ना ताल है
सिरफिरे आशिक़ों का अदब देखिये
कहने वाले कहें, वाह क्या माल है
खोई है आशिक़ी, झुर्रियों में कहीं
इश्क़ में अपनी ना, अब गले दाल है