” जाने अब कहाँ गया “
“जाने अब कहां गया”
नहीं रह गया बीच हमारे वो निस्वार्थ भाव सा मिलना जुलना,
मिलते हैं हम लोग मगर वो अपनापन जाने अब कहां गया?
मां बाप और बुज़ुर्ग हमारे लगता है अब बन गए बोझ हैं,
पाई थी जो शिक्षा दीक्षा और पाठ वो जाने अब कहां गया?
भाई बहिन का रिश्ता भी अब तो बेमानी सा ही लगता है,
दिलों में जो पला करता था वो प्यार जाने अब कहां गया?
यार दोस्त भी अब तो केवल मतलब आने अपर ही मिलते हैं,
बीच कभी जो रहता था वो प्रेम भाव जाने अब कहां गया?
अपने गुरुवर और मार्गदर्शक कैसे भूल पायेंगे उनको हम,
दिल में बसती थी इज्ज़त ओ सम्मान वो जाने अब कहां गया?
स्नेह और प्यार के धागे संग, छोटों को बांधा था हमने,
दुनिया की इस आपा धापी में वो प्रेम जाने अब कहां गया?
होंठों पर अब तेरे मेरे निश्छल मुस्कान दिखाई नहीं देती,
दुनियादारी में दबकर वो मुस्कुराना भी जाने अब कहां गया?
संजय श्रीवास्तव
बालाघाट( मध्य प्रदेश)