ज़िद
साहिलों को छोड़ ,
कश्ती समुंदर की और मोड़ ली
क्योंकि प्यास बुझती नहीं अब इनसे,
अब, नमकीन की आदत सी हो गई है
अक्सर , तूफानों को साहिलों से देखा हैं ,
कश्तियों को मंजिलों से दूर करते हुए…
ज़िद हमारी भी है ,
कश्ती को तूफानों में ही किनारे लगाना है
उमेंद्र कुमार