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10 Nov 2016 · 1 min read

ज़िंदगी की धूप ने झुलसा दिया सारा बदन

ज़िंदगी की धूप ने झुलसा दिया सारा बदन
जल रहा है आज बनकर एक अंगारा बदन
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ग़ज़ल
क़ाफ़िया- आरा, रदीफ़- बदन
वज्न- 2122 2122 2122 212
अरक़ान- फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
बहर- बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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ज़िंदगी की धूप ने झुलसा दिया सारा बदन
जल रहा है आज बनकर एक अंगारा बदन
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काटने को दौड़ती हैं हर तरफ़ तन्हाईयाँ
एक दिल घर में अकेला एक बेचारा बदन
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इश्क़ की नाकामियों ने रख दिया है तोड़ कर
कर न बैठे ख़ुदकुशी ये दर्द का मारा बदन
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मर चुके अहसास जीने का न कुछ मतलब रहा
ढो रहा हूँ मुद्दतों से मैं थका हारा बदन
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आज सीने से लगाकर अलविदा कह दो मुझे
चाहती है छोड़ना ये साँस आवारा बदन
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फिक़्र है किसको कि गुलशन क्यों उजड़ते जा रहे
नोचता है कौन कलियों का यहाँ प्यारा बदन
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राकेश दुबे “गुलशन”
10/11/2016
बरेली

1 Comment · 787 Views
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