जलता जंगल
जल रहा था वो जंगल बेतहाशा
देख रहा था वो मानव ये क्रूर तमाशा
चीखें सुन रहा था ना जानें क्यूँ चुपचाप
साज़िश थी कोई या हुआ था ये सब अपनेआप
लपटों और चिंगारियों का मेला था
उस जंगल में आज,हरएक जीव अकेला था
देखले ऐ कुदरत,तूने क्या अनोखी चीज बनाई
तेरे ही आँचल में तेरे बच्चों ने ये कैसी आग लगाई
कैसे होगी बेजुबानों के ज़ख्मों और आहों की भरपाई
मिटता गया जंगल रह गया बस धुआँ-धुआँ
दोनों हाथ उठाकर दिल ने माँगी बस यही दुआँ
इंसा हूँ,पर इंसा होने पर आज बड़ी शर्मिंदगी है
निर्दोषों के रक्त से भी साफ ना हो पाई हम वो गंदगी है
-सरितासृजना
[दोस्तों मन बहुत आहत है।आंकड़े देखिए कितने ही पशु पक्षी जल गये।जान तो जान होती है क्या मनुष्य क्या जानवर।जरा सोचकर देखिए उस वक्त को जो उन्हें खाक कर गया।]