जय भी, पराजय भी संग तेरे
कितने मौसम कितने जीवन-मरण्,
कितने कैनवास रंगे होंगे संग तेरे,
कितने कुहासे, कितने उजाले देखे
कितनी सुबहें, कितनी शामें संग तेरे।
कितनी बार नापा हूं पर्वत श्रृंग,
कितनी बार समंदरों में डूबा-तैरा
अनगिनत रक्त-रंजित की है माटी,
कभी जय, कभी पराजय संग तेरे।
मैं मुठ्ठी भर जीवन को विशाल बना लिया,
तू प्राण-प्रबल-अदृश्य, तेरे अवलंब, तेरे सहारे,
मैं क्षणिक भी माटी का क्षुण्य नगण्य कण भी,
कितने व्योम-ब्रह्मांड छू लेता हूं संग-संग तेरे।
पता न मेरे उद्भव का, न अंत का,
मैं कण-कण तुम्हारा और तुम अनंत मेरे,
मैं प्राण-निष्प्राण, कभी जड़-कभी चेतन,
तुम युग-युगांतर से चिरंतन संग मेरे।
सृष्टि जीव जंतु वनस्पति प्राण-प्राण,
धरा आसमां चराचर अंग-अंग तेरे,
अंधकार से प्रकाश तक गिनूं क्या-क्या,
न मालूम तू खगोल है कि खगोल भी संग तेरे।
-✍श्रीधर.