जन-जन को कैसे मैं इम्तिहान दूँ
जन-जन को कैसे मैं इम्तिहान दूँ
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जन-गण को कैसे मैं इम्तिहान दूँ,
क्या करूँ कैसे अपनी मैं जान दूँ।
कर के देखा यत्न कोई खुश नहीं,
छोड़कर खुद को उन पर ध्यान दूँ।
एहसान फ़रामोशी की हद देखिए,
सौ पर भारी एक ना कैसे आन दूँ।
भूल जाते हैँ सारे किए कार काज,
छल की कैसे करम चादर तान दूँ।
जन की फितरत समझ आई नहीं,
बिन आई भला कैसे तज प्राण दूँ।
बड़े श्रम से कमाई प्रेम की दौलत,
सारी कीरत कमाई किसे दान दूँ।
बड़ा बोझिल सा बिखरा मनसीरत,
सुनना चाहे न कोइ किसे ज्ञान दूँ।
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सुखविन्द्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैंथल)