जन्म-मृत्यु के सिमटते अन्तर
बड़ा शहर है
लाशें रोज के रोज
किनारे कर दी जाती हैं
महानगरी है
दुर्घटनाएं होते रहती हैं
विस्फ़ोट गिन लिए जाते हैं
भुला दिए जाते हैं
अख़बार भरने के लिए
न हादसों की कमी है
न हादसे उकसाने के लिए
ख़बरों की कमी है ।
अनर्थ बकवासों को
टी वी चैनल पर
चटपटी ख़बर बना देने का हुनर
ख़ूब आता है
शिक्षित समाज को,
उनकी रोटी का जरिया हुआ
कि आदमी की मौत पर
कितने ऐंगिल से वे
रोती हुई विधवाओं,
तड़पते अनाथों की तस्वीरें
अपने चैनल पर बेच खाएं
न संवेदनहीन शिकनहीन
प्रस्तोताओं की कमी,
न मानवता को कलंकित करती,
बेवक़्त, बेवज़ह अनगिनत
मौतों की कमी।
लाशों के समाचार भी उसी मुस्कान से
बांच दिए जाते हैं
जिस तर्ज़ में
फ़िल्मों, खेलों के शोरगुल
एवं दिल्ली दरबार में
राजनैतिक उठापटक वाली
झाड़ू-पोंछे की ख़बरें ।
प्रगति-विकास-इक्कीसवीं सदी
आदि-इत्यादि
आदम सभ्यता की उत्तरोत्तर उड़ान
पृथ्वी छोड़, चांद-मंगल पर सवारी की
विज्ञानी मुहिम,
रक्त कोशों तक जम चुकी भौतिकता
मृत्यु पर विजय पा जाने की जिद,
विकास की विस्फोटक हवा
अखिल ब्रह्माण्डों के आयाम नाप लेती
मानवीय महत्वकाक्षाएं
और सिमटते
अर्थहीन होते जन्म-मृत्यु के अन्तर।
-✍श्रीधर.