जन्नत
जन्नत
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आज भी झेलम में पड़ी होंगी
जो बजती थी चूड़ियाँ कलाईयों पे कभी।
झुलता था बाजुओं मे मेरे
आज भी लिपटा होगा दुपट्टा वहीं पे कहीं।
चौंक कर देखतीं हूँ उधर
जब कभी कानों में सुनती हूँ पश्तो या मीरपुरी।
एक अनचाहे दर्द में उतर जाती हूँ और
उसकी आँखों के आँसू उतर जाते हैं मेरी आँखों में।
अब तो चलती भी नहीं अपनी कश्ती कोई
कोई तरन्नुम सी सौगात भी नहीं
आँसू जो डाल दूँ झेलम में सभी
वो बचे भी नहीं अब मेरी आँखों में।
खुद रही है लंबी सुरंगे हमारे ही नीचे
गिर रहीं है लाशें कई उनको बचाने।
नाचते है शुतुरमूर्ग बन कर जहाँगीर सभी
और बाँट लेते है सभाओं की सब सीटें।
क्यों नहीं आते उनकी आँखों मे वो सपनें
जो धधकती हैं बरसों से मेरे सीने में
आज भी दिखती हैं वो पेड़ों पे टंगी नंगी लाशें
और सड़कों पे बिछी सम्मानें।
कौन है हम ये नहीं भूलेगें कभी
और याद तुमको भी तो होगा ही सभी
भले आज कह लो विस्थापित
शरणार्थी या पलायित ही हमें।
बदले है अपने सभी के चेहरे सियासी रंगों में
जैसे उनके तन में लहू है ही नहीं।
क्यों आज खड़े है हम हाशिए पे और उनमें
कोई खुद्दारी नहीं।
उन आततायी कबीलों को हटा कर देखो
दौड़ कर अपनी जमीन पर आ जाएंगें हम।
बस एक बार मेरे दर्द भी जी कर देखो ।
जन्नत तो दिल में लिए फिरते हैं हम।
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शुभ्रा जाने