छाँव पिता की
पीढ़ियों से जो पिताजी ,
छाँव बन चलते रहे ।।
धूप सावन और आँगन ,
सब उन्हें छलते रहे
*
काल काला निर्दयी,
क्रूर हुए ह्रदय जन के ।
कहाँ खोते जा रहे ,
रजत मंगलपात्र मन के।
बुझ न पायी उस अयाचित, ज्वाल में जलते रहे ।।
पीढ़ियों से जो पिताजी ,
छाँव बन चलते रहे ।।
*
प्रकाशित नीलाभ संग,
अवनि भर संकल्प लेकर ,
कर्म वेदी बनाई ,
युग युगों की उम्र खोकर ।
नये दिवस नयी रात को ,
क्यों सदा खलते रहे ।।
पीढ़ियों से जो पिता जी,
छाँव बन चलते रहे ।।
*
कोई यदि देता सुखद ,
स्पर्श भर कर तपन का ।
भूल जाते शूल सा
एहसास गहरी चुभन का ।
नेह की बाती बने बस ,
मोम सा गलते रहे ।।
पीढ़ियों से जो पिताजी ,
छाँव बन चलते रहे ।।
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©श्याम सुंदर तिवारी
खण्डवा मध्यप्रदेश