चाह..
चाह..
चाहत ये न थी कि
पतझड़ में सूखे पत्ते सी टूट कर बिखर जाऊँ
चाह बस ये थी कि
ख़ुशबू की तरह तेरे मन जीवन में बिखर जाऊँ
चाहत ये न थी कि
तेरी पसंद को अपनी मान अपनी पसंद भुलाऊँ
चाह बस ये थी कि
बिन कहे तू मेरा मन पढ़ ले मैं हौले से शर्माऊँ
चाहत ये न थी कि
हर बात पे रोकी टोकी जाऊँ परिधि में समाऊँ
चाह बस ये थी कि
उन्मुक्त उड़ूँ गगन में सपनों को पूरा कर आऊँ
चाहत ये न थी कि
तुम अधिकारों के मालिक मैं ग़ुलाम बन जाऊँ
चाह बस ये थी कि
मेरा भी हो स्थान अपने हिस्से का सम्मान पाऊँ
चाहत ये न थी कि
देह की ज़रूरत ताक़त के सामने झुकती जाऊँ
चाह बस ये थी कि
पा पारस सा स्पर्श तुम्हारा मैं कुंदन हो जाऊँ
चाहत ये न थी कि
चरित्र पर उठे सवाल जो खुलकर हंसूँ बतियाऊँ
चाह बस ये थी कि
तुझको हो यक़ीन तेरी हूँ और तेरी ही कहलाऊँ
ये ज़रूरी तो नहीं तुम जो चाहो मैं भी वही चाहूँ
ज़रूरी ये है कि एक दूजे की चाहत को निभाऊँ
रेखांकन l रेखा