चार साहबजादे
चार साहिबज़ादे
गोविंद गुरु थे शहंशाह,
जन पालक बन कर आये थे।
उनके जाये सुत वीर चार,
साहिबज़ादे कहलाये थे।
बाबा अजीत, ज़ूझार सिंह,
संग वीर जोरावर और फतह।
उन सा योद्धा न अन्य कोई,
नभ जल हो या हो जमीन सतह।
बाबा अजीत था सत्रह का,
दूजा की उम्र महज़ तेरह।
जोरावर नौ,फतह सात साल,
मैदान ए जंग किया फेरा।
बाबा अजीत सिंह में सदैव
सौ शेरों का बल पलता था।
बाबा जुझार का शौर्य देख,
दुश्मन का जामा हिलता था।
जोरावर सिंह था जोरदार,
बालक दिखता था महानिडर।
और वीर फतह सबसे छोटा,
पग कलगी धरता माथे पर।
दशमेश पिता की संगत में,
रण कौशल विधिवत पाया था।
रंग रूप शान और चाल ढाल,
वालिद सा ही अपनाया था।
शहजादों सा बाना तन पर,
और हाथ में था भाला खंजर।
सौ दुश्मन पर भारी लगते,
बच्चों में दिखता ये मंज़र।
शुरू से ही उन शहज़ादों को,
एक बात यही समझाया था।
मुगलों के जुल्म मिटाने को,
गुरु साहेब तेग उठाया था।
वजीर खान था सूबेदार,
औरंगजेब का था शासन।
पूरा भारत इस्लाम बने,
ऐसा लगवाया दुःशासन।
हिन्दू को तुर्क बनाना था,
मंशा शासक की थी गन्दी।
शाही पोशाक न कोई पहने,
पगड़ी कलगी पर पाबंदी।
गुरु के संग चारों शहज़ादे,
यह हुक्म सिरे से नकार दिया।
लोगों की रक्षा धर्म हेतु,
लड़कर मरना स्वीकार किया।
दसमेश चले रण करने को,
दो बेटे अपने साथ लिया।
दो बेटे थे मां गुजरी संग,
सरसा से गुर प्रस्थान किया।
चमकौर जंग की बागडोर,
बाबा अजीत ने संभाला था।
मुगलों की भारी सेना का,
इस लाल ने किया निवाला था।
चालीस सैनिक की टुकड़ी संग
बाबा अजीत टकराया था।
मुगलों की भारी सेना की,
लाशों पर लाश गिराया था।
शमशीर वार से लगता था,
रण में आया है महाकाल।
भौचक्का सूबेदार मन में,
इस बालक की इतनी मजाल।
अनहोनी थी तलवार मुड़ी,
तब भी योद्धा धमासान किया।
फिर म्यान से कुछ बैरी मारे,
और अंत मे निज बलिदान दिया।
बाबा जुझार को पता लगा,
तब आंखों में था अंगारा।
रण की कमान लिया हाथों में,
दुश्मन बधने चला गुर प्यारा।
पूरे शक्ति से लड़ा वीर,
पर हार नहीं उसने मानी।
लड़ते लड़ते बलिदान दिया,
हरिधाम गया वह सम्मानी।
दूसरी ओर मां गुजरी संग,
न संगी न ही निवाला था।
न पुनर्मिलन की आशा थी,
अब सत्यपुरुष का हवाला था।
गुरु महलों का गंगू नौकर,
माता गुजरी को बहलाया।
चिकनी चुपड़ी बातें करके,
मां बेटों को निज घर लाया।
गद्दारी कर बैठा गंगू,
सोने की मोहरों के खातिर।
माँ बेटों को अपने घर से,
कैदी करवाया वह शातिर।
सरहिंद नबाब बड़ा जालिम,
थी नियत बहुत उसकी गन्दी।
जाड़े का मौसम सर्द बुर्ज,
जिसमें माँ बेटे थे बन्दी।
अगले दिन फतेह जोरावर को,
सैनिक दरबार में ले आया।
इस्लाम को अंगीकार करो,
सुबेदार ने उनको धमकाया।
गर्दन ऊंची सीना चौड़ा,
बोली में वाहेगुरु जय था।
गुर के दोनों शहज़ादों में,
तिनका कण तक भी न भय था।
शहजादे बोले सुनो खान,
इस्लाम नहीं अपनाऊंगा।
जय पंथ मेरा जय देश मेरा,
आखिरी साँस तक गाऊंगा।
मेरा सिख पंथ मणि माला है,
हम दोनों उसके मुक्ता हैं।
ये सर सतगुर या हरि आगे,
बस इनके आगे झुकता है।
मैं वाहे गुरू का कारिंदा,
सत श्री अकाल को पहचानूँ।
कुछ भी कर ले तू सूबेदार,
इस्लाम कभी भी न मानूँ।
जालिम वज़ीर आदेश दिया,
दीवार में इनको चुनवा दो।
इस्लाम में कितनी ताक़त है,
काफिर छोरो को गिनवा दो।
इतना सुन बाबा फतहसिंह,
‘बोले सो निहाल’ है गोहराया।
जोरावर जोर से है बोला,
‘सत श्री अकाल’ है दोहराया।
सैनिक दोनों शहज़ादों को,
सरहिंद किले में खड़ा किया।
चहु ओर दीवार लगी बनने,
गारा ईंटों से बड़ा किया।
दोनों जांबाज डटे थे यूं,
अरदास कर रहें हो जैसे।
न भय था न मन मुरझाया,
जप करते जाते थे वैसे।
गर्दन तक भीत जब आ पहुँची,
जोरावर आंखे हो गयी नम।
छोटा शहजादा बोल पड़ा,
भाई बतलाओ है क्या गम।
हम दीन नहीं तज पाएंगे,
ये जुल्म करें चाहे कितना।
गोविंद पिता की आन हमे,
हमने सीखा उनसे इतना।
जोरावर बोला नही फतह,
तेरे कारण दिल भर आया है।
जन्मा पीछे जाए पहले,
बस यह अफसोस सताया है।
वाहेगुरु कहा शहज़ादों ने,
स्वीकार किया बलिदान धड़ी।
इतिहास लिख गया पन्नों में
दीवार में अंतिम ईंट जड़ी।
माता गुजरी न सह पाई,
सुत का बलिदान खबर पाकर।
तत्काल त्याग दिया जीवन को,
ज्योति में ज्योति मिली जाकर।
प्रणाम मेरा शहज़ादों को,
परमार्थ में स्व बलिदान दिया।
जिंदा चुन गए दीवारों में,
इस्लाम नहीं स्वीकार किया।
दशमेश आप के लाल चार,
सुन्दर हरि भक्त वीर बांका।
सिख संगत के मुख से उचरे,
निक्कियां ज़िंदां वड्डा साका।
दशमेश पिता गोविंदगुरु
तेरे चरणों में शत कोटि नमन।
तेरे उपकार से उऋण नहीं,
भारत अवनी का हर जन जन।
तुम सत्यपुरुष के प्रिय पुत्र,
आये थे जीवों को तारन।
चहु वर्णों पर सन्ताप देख,
कृपाण लिया जुल्मी कारन।
चौदह रण मुगलों के खिलाफ,
है फतेह किया तुमने लड़कर।
सर्वंश वार दिया जनहित में,
कोई न त्यागी तुम सा बढ़कर।
दुनियां में कोई न दे सकता,
सारे बेटों की कुर्बानी।
हे बाजांवाले कलगीधर,
त्रिलोक में तेरी न सानी।
माधव वैरागी तुम्हें नमन,
सूबेदार का तुमने सर काटा।
शाहजादों का बदला लेकर,
तुर्कों का कर दिया सन्नाटा।
साहेब निशान लहराए सदा,
सत श्री अकाल से हो प्रात शुरू।
जय दसों सतगुरु,जय सहजादे,
जय सिख पंथ,जय वाहेगुरु।
-सतीश शर्मा ‘सृजन’