चार लाइनें
ढल गया दिन अब शाम हो गई है
हसरते सब नाकाम हो गई है
गुज़ार दी जिंदगी यूहीं हमने
ख़ास थी जो अब आम हो गई है
यादो की रुसवाई साथ लेकर चला था
थोड़ी सी तन्हाई साथ लेकर चला था
कैसे कह दू कि मै अकेला था
उसकी परछाई साथ लेकर चला था
मेरे वजूद से निकलकर आया था
शाम होते ही मेरे आगोश मे समाया था
जूदा तो उसको होना ही था
क्योंकि वो तो मेरा ही साया था
गमो का साया नजर आया था
अपना पराया नजर आया था
खुद की परछाई ने भी साथ छोडा
जब अंधेरा छाया नज़र आया था
नही बांध सकता ममता
को शब्दो के बंधन मे
शब्द नही मिला इस देवनगर मे
लिख सकू जो माँ के अभिनंदन मे