घृणा ……
घृणा ……
रिश्तों को जंगल बनाती है घृणा
मुहब्बत को पल में मिटाती है घृणा
घृणा की माचिस में पलते हैं शोले
जख्मों से दिलों को सजाती है घृणा
पनपता नहीं घृणा में प्यार का नाता
घृणा से तो पैदा सिर्फ होती है घृणा
इंसान को भी दरिंदा बनाती है घृणा
रक्षक को भक्षक भी बनाती है घृणा
हैं घृणा के अंजाम यर युद्धों के मंजर
जिस्मों को लाशें बनाती है घृणा
है हर रूप विकृत और हर रंग काला
कफ़न अश्कों का हसीं को पहनती है घृणा
चलती है गुलिस्ताँ में जब बयार घृणा की
बदल देती है खिजाँ में बहारों को घृणा
इक दूजे को मिटा के न कुछ भी मिलेगा
मिटानी है तो मिटाओ ये आपस की घृणा
करो जीवन न कुर्बान बलिवेदी पर घृणा की
रिश्तों के दामन पर सजाओ न घृणा,
सजाओ न घृणा,……
सुशील सरना