घर
बोलती उसकी हरेक दीवार-ओ-दर है
फकत ईंट पत्थर से होता न घर है।
केवल चार दीवारों के भीतर बनाए
गए कमरों का नाम नहीं घर है।
कोने-कोने में रहती है जहाँ जिन्दगी
पग-पग पर मिलती है जहाँ खुशी।
हर कदम जहाँ जिन्दगानी करती बसर है
फकत ईंट पत्थर से होता न घर है।
हर पल खिलखिलाती है जहाँ हंसी
चारों तरफ बिखरी है जहाँ मुस्कान।
पल-पल जहाँ अपनेपन का रंगोअसर है।
फकत ईंट पत्थर से होता न घर है।
दोस्तों यही घर का है असली कलेवर
ईंट पत्थर की चारदीवारी के भीतर
जब बसता हर कण में प्रभु का असर है
फकत ईंट पत्थर से होता न घर है।
वही घर होता है नहीं होता है मकान।
जब पड़ जाती है अपनेपन की जान।
तब कहीं जा कर एक प्यारे से घर के
रूप में बदल पाता है कोई मकान।
घर की असली पहचान आती नजर है।
फकत ईंट पत्थर से होता न घर है।
—रंजना माथुर
जयपुर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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