गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही ……
गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही ……
स्वयं को
मेरी नज़र से
ओझल कर देने से
क्या तुम
दूर हो जाओगे ?
मेरी रातों से
मेरे स्वप्नों से
बोलो कैसे
स्वयं को
दूर कर पाओगे ?
अपने एकाकी पलों में
मैं अपने प्यार को
महसूस करती हूँ
क्या तुम
अपने एकाकी पलों की
ओट में मेरा सामीप्य
महसूस नहीं करते ?
क्यूँ नहीं इतनी सी बात
तुम नहीं समझते
तुम मेरे जीवन में
सागर की तरह आये
मैं बूँद सी
तुम में समा गयी
अपने अस्तित्व को
तुम्हारे किनारे की
गीली रेत सा कर लिया
अपने अस्तित्व के सफीने को
तुम्हारी मुहब्बत की
लहरों के हवाले कर दिया
न जाने क्यूँ
तमाम शब्
तुम्हारी बेवफाई की आंच में
मेरी नज़र से
तुम्हारी याद
रह रह के पिघलती रही
और मैं
तन्हाई में
तुम्हारे आभास के
अक्स से लिपट
अपने विगत
प्रेम पलों में उलझी
गीली लकड़ी की तरह
सुलगती रही
सुलगती रही ……
सुशील सरना