गीत 24
गीत
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मौन हैं दिन भीड़ ने
ओढ़ा अकेलापन ।।
देखता हूँ अब अधिक
वाचाल है दरपन ।।
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जल भरे बादल भिगोते ,
लौट करके रात को ।
स्वेद ने पिघला दिया है ,
सुख, सलोने गात को ।
निपट अंधा पंथ पर
चलता हुआ कानन ।।
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हुआ व्यापारी अँधेरा ,
कैद भोली भोर है ।
कुटिल कपटी धड़कनों में ,
बस छलों का शोर है
।
हर खुशी से हो गयी है
समय की अनबन ।।
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दोपहर के हाथ में है
क्रोध की जलती मशाल ।
भाव मन की दूरियों के ,
मौत होती मालामाल ।
अस्मिता के कोष
लुटते जा रहे हर दिन ।।
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©श्याम सुंदर तिवारी