गीत 22
आज यह गीत सादर
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नर्म धरा पर बीज उगे थे
अंकुर टूटे हैं।।
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पता नहीं यह समय
निगोड़ा कैसा आया ।
जो भी मिलता उसके,
सिर पर काला साया ।
उर से रूखे आँखें सूखी ,
सब मन रूठे हैं ।।
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पारे से दिन फिसल रहे
अब हाथ नहीं आते ।
उल्टा हमको समझाते हैं ,
आँखें दिखलाते ।
जिनको चाहा अपना समझा ,
वे सब झूठे हैं।।
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रातों को क्या रोएँ,
उजाले रखते हैं चाकू ।
खेतों से भुन्सारे लौटे,
घायल हैं काकू ।
संवेदन के कूल किनारे ,
भीतर फूटे हैं ।।
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नर्म धरा पर बीज उगे थे,
अंकुर टूटे हैं ।।
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©श्याम सुंदर तिवारी