गीत 21
गीत
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दिन गिरे फुटपाथ पर चलते हुए ,
सघन बरगद पर अँधेरा हो गया ।।
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स्वेद दौड़ा भाल पर भयभीत सा ,
मालती के पैर की चप्पल गिरी ।
डगमगाता चल रहा सुखराम भी ,
अधखुली पलकें गरम जल से भरीं ।
नृत्य करती यामिनी ढलते हुए ,
मन विषादों का चितेरा हो गया ।।
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समय टेढ़ा है कठिन कोदण्ड सा ,
अभावों के घर दिवाली मन रही ।
चन्द्रमा केतू के कारावास में ,
स्वप्न की सच से निरन्तर ठन रही ।
दिवाकर की कहाँ तक बातें करें ,
कालिमा ओढ़े सवेरा हो गया ।।
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हर तरफ है द्वन्द फिर भी क्या हुआ ,
अभी पथ पर बाग, वन मकरन्द है ।
डोलते अन्धे पलों के बीच में ,
आस के मधु पल अभी स्वच्छन्द हैं ।
आ जरा घूँघट उठा अमराई का ,
अंशुमाली का बसेरा हो गया ।।
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©श्याम सुंदर तिवारी