गीत 14
गीत
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कुछ पन्ने ही शेष बचे हैं ,
जो पढ़ना है इस किताब के ।।
कुछ पन्नों में वर्तमान है ,
कुछ भरमाते मधुर ख्वाब के ।।
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अंधकार में खो जाएगा ,
हमराही जीवन इस पथ का ।
बिना कहे रुक जाएगा जब ,
वह होगा अंतिम दिन रथ का ।
ये संयोग बने रहते हैं ,
सदा नदी सँग बही नाव के ।।
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शायद भूल रहा है यह मन ,
समय भागता पर नियमित है ।
जिसने हर पल जिया सम्हलकर ,
वही असल में बस जीवित है ।
दर्द सदैव हरा रहता है ,
जैसे बरगद घनी छाँव के ।।
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एक आस की कच्ची डोरी ,
मन की धरती अंकुर भींचे ।
जैसे कोई किरन बालिका ,
अँधियारे में आँखें मीचे ।
यही दिखाएगी हम सबको ,
पंथ असीमित नवल गाँव के ।।
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©श्याम सुंदर तिवारी