गीत 12
गीत
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छूटा जीवन का स्वर्णकलश ,
बस स्वप्न रह गए आँखों में ।।
टूटे पंछी के पर लेकिन ,
बच गईं उड़ानें पाँखों में ।।
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यायावर थे जब ठहरे हम ,
तब नींद नहीं थी पलकों पर ।
होंठों पर दिखती हँसी जरा ,
यह लेकर रखी मुचलकों पर ।
कितनी स्मृतियाँ हैं उर में ,
सब रखी उठा कर ताखों में ।।
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उड़ने के दिन सब बीत चुके ,
दिन अब परवाज़ें गिनने के ।
चुपचुप आकुल हैं व्यथित अधर ,
ये कान रहे बस सुनने के ।
कोई तो हो जो समझा दे,
इस पागल मन को लाखों में ।।
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©श्याम सुंदर तिवारी