गीत नहीं भाते
गीत
स्वर लपेटे व्यंजना के, गीत नहीं भाते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते
लेकर नागफनियां हमने, पीर बहुत गाई
गए जहां भी हम बंजारे, नीर बहुत पाई
उदासी के द्वार सजे हैं, मीत नहीं आते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।
आंसू भूले नैन की भाषा, कैसी बदरी है
चादर खींचे लाज-धर्म, कैसी गठरी है
मर्यादा के जंगल में अब, रीत नहीं बातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।.
लघु बहुत है तेरा-मेरा, नाता दुनिया का
भूल गये सब छंद यारा, गाना मुनिया का
गर्म-गर्म हैं सांसे अपनी, शीत नहीं रातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।।
सूर्यकांत