गिरगिट
गिरगिट
मेरे घर के सामने
एक पेङ पर
गिरगिट बैठा था
अपने रंग बदलने के
हूनर पे ऐंठा था
मेरा नहीं है कोई सानी
कहके बङा इतरा रहा था
मचलता जा रहा था
मैंने कहा
गिरगिट भाई
आज का इंसान
जितने रंग बदलता है
जिस स्फूर्ति से
बदलता है
उसका कोई
मुकाबला नहीं
इतना सुनके गिरगिट
शर्मिंदा हो गया
फिर उसने कभी
अपने हूनर पर
गर्व नहीं किया
-विनोद सिल्ला