ग़ज़ल _ मुहब्बत के दुश्मन मचलते ही रहते ।
ताज़ा ग़ज़ल
1,,
मुहब्बत के दुश्मन मचलते ही रहते ,
निकलते हैं जब हम वो गिरते ही रहते ।
2,,
समझते नहीं हम धरम को भी लेकिन ,
झगड़ने में बस सब से आगे ही रहते ।
3,,
फ़लक जानता है , ज़मीं जानती है ,
भड़कती है जब आग पीछे ही रहते ।
4,,
वफ़ा के पुजारी वफ़ा भूल बैठे ,
भरोसा वो अपना घटाते ही रहते ।
5,,
नयी रौशनी को तलाशा था फिर भी ,
कई आँख में बस अँधेरे ही रहते ।
6,,
लगी आग में हर कुई कूद जाता ,
फ़साना सुनाकर , बुझाते ही रहते ।
7,,
पुकारा था किसने सदा आ रही है ,
पलटते न हम , यार बढ़ते ही रहते ।
8,,
मुक़द्दर चमकता रहे उन सभी का ,
दुआ “नील” पल पल,जो करते ही रहते ।
✍️नील रूहानी,,, 29/11/2024,,,,,
( नीलोफर खान)