ग़ज़ल _ नसीबों से उलझता ही रहा हूँ मैं ,,
दिनांक ,,,21/09/2024,,
बह्र ,,,,1222 – 1222 – 1222,,
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🍁 गज़ल 🍁
1,,
नसीबों से उलझता ही रहा हूँ मैं ,,
न जाने क्यूँ बिखरता ही रहा हूँ मैं ।
2,,
मुहब्बत से कभी थी दोस्ती अपनी ,
बिछड़ कर रोज़ लड़ता ही रहा हूँ मैं ।
3,,
बहारों सी खिली थी जिन्दगी उसकी ,
मिटाकर यूँ सिमटता ही रहा हूँ मैं ।
4,,,
मुलाक़ातें भी अब होती कहाँ उनसे ,
मुरव्वत में गुज़रता ही रहा हूँ मैं ।
5,,,
नशा ऐसा दिया था क्यूं परीज़ादी ,
पिये बिन भी बहकता ही रहा हूँ मैं ।
6,,
न जीने की तमन्ना ‘नील’ अब मुझको ,
मगर फिर भी संभलता ही रहा हूँ मैं ।
✍नील रूहानी,,,21/09/2024,
( नीलोफ़र खान )