ग़ज़ल
गज़ल ,,,,, 27
दिनांक ,,, 01/06/2024,,
बह्र _ 11212/11212/11212/11212
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है करम तेरा मेरे ऐ खुदा, जो ये जिन्दगी में बहार है ,
जो बसा है आँख में नूर है,जो मिला है दिल को क़रार है।
न वो प्यार है ,न वो इश्क़ है,ये हवा बड़ी ही है मतलबी ,
न चमक है चेहरे पे दोस्तों ,न कहीं भी सच का खुमार है।
जो बने है काम अभी अभी ,ये दुआ है और है इल्तिजा ,
वो मेहर खुदा से था बेखबर,जो यक़ी हुआ तो निसार है।
जो न सोच पाये भला कभी , उसे मार धक्के भगाइये ,
ये पड़ी थी आँख में धूल है,जो उड़ा था वो ही गुबार है।
जो किये थे कर्म कभी गलत,वो करे न माफ़ भी उम्र भर,
जो थी जिल्लतें,जो थी तुहमतें,मिले अब तुम्हें ये उधार है।
वो हदों से पार है बा-खुदा ,वो क़रीब भी है रगे – गुलू,
है दयालुता की वो छांव में,जो ये ‘नील’ सबकी निगार है।
✍नील फर्रुख़ाबादी, 01/06/2023 ,,
( नीलोफ़र खान,, स्वरचित )
शब्दार्थ __
दयालुता _ रहम करम// निगार _ प्रिय //