ग़ज़ल
रोशनी देते हैं पुरखों के हवाले आज भी ।
ताक़ पर पुरनूर हैं उनके रिसाले आज भी ।।
आस्था के दीप जलते हैं हमारे ज़ेह्न में ।
दौरे ग़र्दिश में सुकूं बनते शिवाले आज भी ।।
आज तक ख़्वाबों में आ कर मां दुआ देती मुझे ।
सरफिरे तूफ़ान से मुझको बचा ले आज भी ।।
जिस्म को दो ग़ज ज़मीं में दफ़्न कर डाला मगर ।
घर को खुशबू दे रहे हैं ये दुशाले आज भी ।।
शेर के मानिन्द मेरा दर्द इक तस्वीर सा ।
आप के एहसास को अश्कों में ढाले आज भी ।।
हम ठहर जाते हैं अक्सर देख कर कोई हुजूम ।
हाथ शायद बढ़ के कोई तो सम्हाले आज भी ।।
तर्क़े उल्फ़त का बहाना ढूंढ़ता था कल भी वो ।
उसके लफ़्ज़ों में “नज़र” मकड़ी के जाले आज भी ।।
ताक़ = दीवार में बनी छोटी आलमारी
पुरनूर = प्रकाशवान
तर्क़े उलफ़त = मोहब्बत का परित्याग