ग़ज़ल
तू मुसलमाँ, मैं हूँ हिन्दू ,
तू है हिन्दू, मैं मुसलमाँ ।
इसी चक्कर में पड़ा है ,
आज ये हिन्दोस्ताँ ।।
हर तरफ़ हिन्दोस्ताँ में,
इक लड़ाई मच रही है ।
कैसे भी करके हमें
पूरा मिले ये आसमाँ ।।
वैसे तो कितने ही गुल
खिलते हमारे देश में ।
किन्तु मुरझाया हुआ सा
लगता है ये गुलसिताँ ।।
वो है अगड़ा, वो है पिछड़ा,
वो दलित, जनजाति वो ।
सबने अब इंसान से रख
ली बनाकर दूरियाँ ।
कोई ‘जय श्री राम’ कहता,
‘अल्लाह हू अकबर’ कोई ।
देश की परवाह किसको ?
खुद की करते हैं अमाँ ।।
फ़िर खड़ी आगे गुलामी
लेके जंजीरें कड़ी ।
पहनने को हो जाओ
तैयार सारे हुक्मराँ ।।
उतना ही अच्छा है अपने
देश या खुद के लिए ।
जितनी जल्दी भाँप लें सब
आने वाली आँधियाँ ।।
वर्ना आएगी यहाँ,
फ़िर से तबाही इक बड़ी ।
जिस तबाही में ढहेंगे
सभी लोगों के मकाँ ।।
— सूर्या