ग़ज़ल
मैंने इक खौफ़ सा उस शख्स के अंदर देखा
जैसे तूफ़ान के साये में समंदर देखा,
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एक एक दु:ख को टटोला गया है हौले से
मैंने इंसानियत का ऐसा भी ल॔गर देखा
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जिसको सीने से लगाये हुए रखा था सदा
उसको जाते हुए हमने न नज़र भर देखा
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राज़ की अहमियत रही,न बात की ही रही
हर किसी से है यहाँ हमने तो खुलकर देखा
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माँ ने बच्चे के लिए कौन सी ग़ुरबत न सही
धूप में जल के और ठंड में गलकर देखा