ग़ज़ल
कौन सा ये मोड़ जाने ज़िंदगी में आ गया
ग़म का साया क्यूं मेरी हर इक खुशी में आ गया,
मैं अँधेरों से भला,लड़ती रही क्यूं अब तलक
रहनुमाई करने वाला रौशनी में आ गया,
जो सदा रंगीन कपड़ों में मिला करता मुझे
क्या हुआ, कैसे वो इतनी सादगी में आ गया,
ज़ब्त करके रखा था जिस सच को अपनी जान में
वो न जाने कैसे मेरी डायरी में आ गया
दो निवाले ले के वो बैठा ही था खाने को कि
क्या करे मेहमान उसकी झोंपड़ी में आ गया,
जानवर की देह में आदम का अक्स आ गया
जानवर की शक्ल सा कुछ आदमी में आ गया।