ग़ज़ल
ग़ज़ल
हसनैन आक़िब
कुछ सिलसिले फ़लक के पड़े हैं उजाड़ से।
रिश्ते बने हुए हैं ज़मीं के पहाड़ से॥
तुम तो चले गए मेरी दुनिया को छोड़ कर
लग कर खड़ा है कौन ये दिल के किवाड़ से॥
आंधी चले कभी तो सलामत रहोगे ना?
पौधे ने सर उठा के ये पूछा है झाड़ से॥
बदनाम होता है वो जो आगे दिखाई दे
जलवा दिखाता और ही कोई है आड़ से ॥
बे-फैज़ सरबुलंदी के का़यल नहीं हैं हम
मिलता नहीं है साया मुसाफि़र को ताड़ से॥
बिगड़ा है एक तू मेरे बेटे, मगर ये सोच
बिगड़े हैं काम कितने तेरे एक बिगाड़ से॥
कितने अजीब लोग हैं आक़िब तुम्हारे साथ
हीरों से बैर, इश्क़ है जिन को कबाड़ से ॥