ग़ज़ल
ग़ज़ल
हसनैन आक़िब
ताक़-ए-माज़ी पे तुझे अब भी सजा रक्खा है।
तेरी यादों से त’अल्लुक़ तो बना रक्खा है॥
हो ज़रूरी भी तो ताबीर की जल्दी ना करे
हर बुरे ख़्वाब को मैंने ये जता रक्खा है ॥
शब है तारीक, ख़बर गर्म कि वह आते हैं
एक दिया शाम से चौखट पे जला रक्खा है॥
एक जजी़रा तेरी यादों का है अब तक आबाद
उस में माज़ी के हर एक पल को सजा रक्खा है॥
ना ही शिकवा ना गिला और ना चाहत ना ख़ुलूस
छोड़िए, ऐसी मुलाका़त में क्या रक्खा है॥
शज-रे-ममनू’अ जिसे कहती है सारी दुनिया
क्यों उसी फल में जहां भर का मजा़ रक्खा है॥