ग़ज़ल
ग़ज़ल
हसनैन आक़िब
अभी से अक़्ल के पीछे पड़े हैं
ये बच्चे कितने बूढ़े हो गए हैं
जिन्होंने मुफ़्लिसी में हाथ थामा
मुझे अब वो बुरे लगने लगे हैं
ना काग़ज़ की ज़रूरत ना क़लम की
कुतुब ख़ाने मेरे दिल के खुले हैं
जहां बीवी के क़दमों में है बेटा
वहीं मां बाप ठोकर में पड़े हैं
ये बरगद अपने फैलाओ पे ख़ुश हैं
मगर अन्दर से कितने खोखले हैं
हर एक मौज़ू पे रखते हैं ये नज़रें
मेरे अशआर थोड़े मनचले हैं
था जिन में ज़िक्र तेरी बेबसी का
वो अफ़साने मुझे सच्चे लगे हैं
फ़रिशतो , इन को अपने पास रख लो
ये आंसू अौर की ख़ातिर बहे हैं
तुम्हें सोना समझकर छूने वाले
ना जाने कैसे मिट्टी हो गए हैं