ग़ज़ल
है महज़ इक ख़्वाब सा तू,महबूब माहताब मेरे
तुझको देखा किया करूं,या कि फिर भूल जाऊं।
दिल के कागज़ पे लिखे,सुर्ख लहू से मजबूं मेरे
पाकर तुझको ही, जिगर का अब सुकून पाऊं।
जाने क्यूं लगता है,अधुरा ये सफ़र, बिन तेरे
तेरी चाहत में कहीं रो रोकर ही न मैं मर जाऊं।
देखे संग सब ख्वाब और हर ख्वाब अधूरे मेरे
मिले जो दामन तेरा तो, नया ख्वाब सजाऊं।
नीलम शर्मा✍️