ग़ज़ल’ की प्रतिक्रिया में ‘तेवरी’ + डॉ. परमलाल गुप्त
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कविता का लय अथवा संगीत से विशेष सम्बन्ध है, इसलिए पहले छन्दबद्ध रचना को ही कविता माना जाता था। निरालाजी ने मुक्तछन्द का प्रवर्तन किया, परन्तु उसमें उन्होंने लय की रक्षा की। महादेवी वर्मा के गीतों की प्रमुख विशेषता उनकी संगीतात्मकता है। संगीत से संयुक्त होकर कविता का प्रभाव बढ़ जाता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का कथन है-‘केवल भावमयी कला ध्वनिमय है संगीत। भाव और ध्वनिमय उभय जय कवित्व नवनीत।’
कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि इसमें भाव और ध्वनि दोनों का संगम होता है। परन्तु विकास के क्रम में कविता बार-बार बौद्धिक गद्यात्मकता की ओर बढ़ी और पुनः लय और संगीतात्मकता से जुड़ी। ‘गीतों की संगीतात्मकता’ का व्यामोह छोड़कर ‘नयी कविता’ लगातार अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति में अंतर्मुखी, बौद्धिक और गद्यमय होती गयी, तब ‘नवगीत’ का आविर्भाव हुआ, जिसमें सहज संवेदना के साथ के साथ लय और संगीत की रक्षा की गयी।
प्रगतिशील धारा के कवियों को यह नहीं रुचा, इसलिए उन्होंने ‘नवगीत’ का विरोध करते हुए बौद्धिक एवं गद्यात्मक लम्बी कविताएँ लिखीं।
‘नई कविता’ की अंतर्मुखता इनमें बहिर्मुखता बनी। इन्हीं की प्रतिक्रिया में भाव एवं संगीत से युक्त ‘ग़ज़ल’ का प्रचार हुआ और ‘ग़ज़ल’ की प्रतिक्रिया में ‘तेवरी’।
‘ग़ज़ल’ का ही एक दूसरा रूप ‘तेवरी’ को माना जा सकता है। यद्यपि ‘ग़ज़ल में भी वर्तमान जीवन की विसंगतियों और लोक-भावनाओं की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है तथापि ‘तेवरी’ के पक्षधर यह मानते हैं कि परम्परित रूप में ग़ज़ल, उर्दू शृंगारिकता और संगीतजन्य कोमलता से मुक्त नहीं है, हो भी नहीं सकती। इसलिए ‘ग़ज़ल’ को कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से ऐसा रूप दिया जाये कि वह सामाजिक विषमता, तल्खी, जनाक्रोश और क्रान्तिकारी भावनाओं की सक्षम अभिव्यक्ति कर सके। ‘तेवरी’ के पक्षधर यह मानते हैं कि ‘ग़ज़ल’ अपने परम्परित रूप में वीर-भावों को जागृत नहीं कर सकती, उसमें क्रान्ति की ललकार का स्वर नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ दुष्यंत कुमार तथा अन्य ग़ज़लकारों ने सामाजिक विसंगतियों का जो चित्रण किया है, वह केवल एक करुण सोच उत्पन्न करता है। ‘ग़ज़ल’ है ही ऐसी विधा जो संगीत के कारण बौद्धिक होने के बजाय सम्वेदनात्मक है। अब ‘तेवरी के पक्षधरों को कहा जाये कि भाई ‘ग़ज़ल’ आपकी कान्तिकारी भावनाओं को व्यक्त कराने में अक्षम है, तो कविता के दूसरे रूप विद्यमान हैं, उनमें अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करो। परन्तु उन्होंने ऐसा न करके ‘ग़ज़ल’ के स्वरूप या तेवरी में परिवर्तन करके तेवरी विधा का प्रारम्भ किया है।
यद्यपि अनेक नये कवि तेवरी लिख रहे हैं तथापि इसके आन्दोलन का केंद्र अलीगढ़ है। अलीगढ़ से ‘हिन्दी-ग़ज़ल’ और ‘तेवरी-पक्ष’ दो पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। इसके अलावा इधर कई तेवरी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, यथा-‘अभी जुबां कटी नहीं [1983 ई.] कबीर जिन्दा है’ [1983 ई.], ‘इतिहास घायल है’ [1985 ई.] ‘एक प्रहारः लगातार’ आदि।
‘तेवरी’ लिखने वाले कवियों में रमेशराज, अरुण लहरी, अजय अंचल, योगेन्द्र शर्मा, सुरेश त्रस्त, ज्ञानेन्द्र साज, राजेश मेहरोत्रा, गिरिमोहन गुरु, डाॅ. देवराज, विक्रम सोनी, गजेन्द्र बेबस, दर्शन बेजार, विजयपाल सिंह, अनिल कुमार, गिरीश गौरव, बिन्देश्वर प्रसाद गुप्त, राजेन्द्र सोनी आदि प्रमुख हैं। इन कवियों ने ‘ग़ज़ल’ के कोमल स्वरूप को समाप्त करके उसे अधिक जुझारू और आक्रोशमय बनाया है।
दर्शन बेजार की ये पक्तियाँ देखिए-
अब कलम तलवार होने दीजिए,
दर्द को अंगार होने दीजिए।
आदमीयत के लिए जो लड़ रहा,
मत उसे बेज़ार होने दीजिए।
इसी प्रकार-
शब्द अब होंगे दुधारी दोस्तो,
जुल्म से है जंग जारी दोस्तो।
सत्य को सम्मान देता कौन है?
झूठ का सिक्का है भारी दोस्तो।
सभ्यताओं के सजे बाजार में,
बन गयी व्यापार नारी दोस्तो।
लूट में मशगूल है हर रहनुमा,
लुट रही जनता विचारी दोस्तो।।
[इतिहास घायल है, पृष्ठ 19]
इन तेवरियों में पहली बात तो निराशा अथवा पलायन के स्थान पर संघर्षधर्मी चेतना और सकारात्मक या आशावादी दृष्टिकोण है |
तेवरीकार दुष्यंत कुमार के इस दृष्टिकोण की कायल नहीं हैं-
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चले उम्रभर के लिए।
ये तो सीधे व्यवस्था को चुनौती देते हैं और कविता को व्यवस्था-परिवर्तन के हथियार के रूप में इस्तेमाल के पक्षधर हैं-
शब्दों में बारूद उगाना सीख लिया,
कविता को हथियार बनाना सीख लिया। [रमेशराज, इतिहास घायल है, पृष्ठ 44]
तेवरीकार प्रेमचन्द के ‘होरी’ और ‘गोबर’ के द्वारा सामंती एवं महाजनी शोषण को सहने की धारणा से भी ये सहमत नहीं हैं। रमेशराज ने ‘अभी जुबां कटी नहीं’ में इसी भावार्थ से सम्बधित ५० तेवर की तेवरी लिखी है। समाज-व्यवस्था के स्वरूप के प्रति इनका दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है, परन्तु ये सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं और ऐसी हर परम्परा को तोड़कर विद्रोह करना चाहते हैं, जो आम आदमी के शोषण और सामाजिक अन्याय को प्रश्रय देती है।
डॉ . देवराज की ललकार भरी ये पंक्तियाँ देखिए-
हमारे पूर्वजों को आपने ओढ़ा-बिछाया है,
कफन तक नोच डाला, लाश को नंगा लिटाया है।
जमाखोरों कुशल चाहो अगर तो ध्यान से सुन लो,
निकालो अन्त निर्धन का, जहाँ तुमने छुपाया है। [कबीर जि़न्दा है]
स्पष्ट है कि ‘तेवरी’ में ‘ग़ज़ल’ की तरह भाषा और शिल्प के साज-सँवार की कोशिश नहीं की गयी है। भाषा सपाट, पर ओज-भरी है। ‘तेवरी’ को गाया जा सकता है, परन्तु इसकी रचना ग़ज़ल की गायिकी के उपयुक्त नहीं होती। वैसे मूल रूप में ‘तेवरी’ ग़ज़ल से अलग नहीं है। इसलिए कुछ लोग इसे ‘ग़ज़ल’ या नई ‘ग़ज़ल’ [‘नई कविता’ की तर्ज पर] कहना चाहते हैं।
‘तेवरी’ के पक्षधर इसे हिन्दी कविता की नयी और अलग विधा मानते हैं। उनका तर्क है कि ‘यदि किसी रचना के कथ्य या शिल्प में कान्तिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है तो वह अपनी मौलिक पहचान खो देती है अथवा नहीं? यदि वह कान्तिकारी परितर्वन के साथ अपनी मौलिक पहचान खोती है, अपने पुराने रूप को त्यागकर एकदम नये रूप में प्रस्तुत होती है तो उसे पुराने ही नाम से पुकारा जाना नितांत नासमझी से युक्त गैर जिम्मेदाराना कार्य होगा। ठीक इस तरह जैसे यदि कोई वैश्या वैश्यावृत्ति को त्यागकर अपना घर बसा, एक आदर्श पत्नी की भूमिका अदा करती है, लेकिन हम उसे फिर भी ‘वैश्या’ ही सम्बोधित करते हैं।’ [विजयपाल सिंह, तेवरीपक्ष, बेन्जामिन मोलोइस स्मृति अंक, पृष्ठ 8]
यह तर्क इस रूप में बहुत सही है कि विचार-पक्ष की प्रधानता होने के कारण ‘तेवरी’ में ‘ग़ज़ल’ के कलात्मक पक्ष का जो ह्रास हुआ है, उससे यह ‘ग़ज़ल’ से भिन्न तो हो ही गयी है। सामाजिक उपादेयता के बावजूद इसके काव्यात्मक मूल्य पर भी कुछ प्रश्नचिन्ह लग गया है। आगे इसका क्या स्वरूप बनता है, कहीं इसका लोप तो नहीं हो जाता अथवा प्रगतिवादी चौखटे में फिट होकर ;
[‘नवगीत’ से ‘जनवादी गीत’ की तरह] अपनी पहचान तो नहीं खो देता, यह देखना है।