गर कभी आओ मेरे घर….
गर कभी आओ मेरे घर तो मेहमां बनकर मत आना
आना ही हो तो हृदय के विस्तृत द्वार खोलकर आना
राह से कोई महंगा उपहार खरीदकर मत ले आना
अपने अंदर मेरे अहसास को बस जिंदा ही ले आना
भीगो देना जरा भीतर उफनते अमर्ष को तुम भी
हृदय नयन में समर्पण की हल्की बरसात ले लाना
मेरी बेकल हृदय ध्वनि तुझ निर्झन तक नहीं पहुंची
आ रहे तो सुनम्य अंत:सत्व शब्द झंकार संग आना
छेड़ी जो व्याकुल राग मेरी मन वीणा को साधने तो
कंठ संगीत में सप्त सुर से बंधी वेदन संग ले लाना
रिक्त रेतीले कण सी उड़ती शून्य सृष्टि मे बिसरा मन
गर ला सको अनंत चेतना क्षण मुठ्ठी में कैद कर लाना
अनाड़ीपन था वह मेरा लघु को विशाल समझा
सुरभित सींचित समृद्धि का इस बार दान तुम ले जाना
है घाव हरे आज भी कभी देकर चले गये थे तुम जो
मरहम के दरदरे मीठे बोल महिन पीसकर लाना
तेरी परिमित प्रवृति मैं खुद में ही हूं अपरिमित प्रकृति
बची गिनी चुनी सांसें मेरी जो बसी तुझमें ले जाना
हृदय शिखर पर बिठाया तुमको अमूल्य वरदान समझ
अब अंतिम बार अभिजात अभिमत अवनीश बन आना
मेरा आरम्भ तुम मेरी कहानी का अंत भी हो तुम
कोई ऐसी दारूण कहानी सुनाने मत आना
आना हो गर तो हृदय के विस्तृत द्वार खोलकर आना
कभी आओ मेरे घर तुम तो मेहमान बनकर मत आना
संतोष सोनी “तोषी”
जोधपुर (राज.)