गर्मी के दिन
नौ दिन तपा
तपाने आये
पेड़ों के पत्ते कुम्हलाये
सुलग रहे
आँगन चौबारे
सूरज से फूटे अंगारे।
भरी दुपहरी सूनी सड़कें
दिन चढ़ते ही
शोला भड़कें
ऊँची -ऊँची दीवारों में
लम्बी आहें
दिल भी धड़कें
ए सी कूलर पंखे सारे
बने हुए हैं मात्र सहारे।
चारों ओर
विकास हुआ है
हरियाली का नाश हुआ है
पहले जितने थे
वन-उपवन
नहीं बचे अब उतने कानन
क्रंदन कर पंछी भी हारे
लाखों उनके बच्चे मारे।
उजड़े पेड़ों की डाली पर
जाने कहाँ
छुपे हैं खंजन
समय-समय पर
ललचाता है
शर्बत लस्सी पीने को मन
शीतल जल को
कंठ पसारे
थके हुए प्राणी बेचारे।
जगदीश शर्मा सहज