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11 Apr 2020 · 1 min read

गढ़वाली मुक्तक -2 | मोहित नेगी मुंतज़िर

वबरा बैठी बनोंदि छे वा, लाखडूं मा दिनो खाणु
सब तें देंदि छे एकि नाप, अपणु हो या क्वी बिराणु।
कभी खलोन्दी छे हरि उमी, कभी उखड़ी बूखणु घाण
जब नि दिखेंदा छा भूका तीसा,तब माणदु छो ब्वे कु प्राण।

इस्कूला बाटा खुंद, सुबेर सुबेर दनका दनकी
आफु छोटा बैग बड़ा, छोरा लग्यां जनका जनकी।
जै ते देखी तालु लगयूं , मास्टर भी छुट्टी गयुं
निरभागी छोरोंगी फजीती, रोज उब्बू उन्दू खणकी।

बीस साल चार मैना, कै दिन वारा न्यारा व्हेन
जै दिन बाटी फगणु बोडा, ज्यूंरा ते प्यारा व्हेन।
दफ़्तरों जै खब्टा टुटिन, हाथ टुटिन जोड़ी की
तब जै ते बिधवा पिन्सन,आज लगी बोडी की।

बोडी कुठणी झम झम,उरख्याला झंगोरे घाण
भोळ छोळन छांछ सौदी, लसलसु पल्यो बणाण।
हक्क ल्योण पड़दु झगड़ी,सुंगर बाग रिक्क दगड़ी
यनि सुदी नि होन्दू भुलों,गोंकु कोदु कंडालु खाण।

ह्युंद की जुन्याली रात, चुल्ला जगीं बाँजे आग
कोदे गदगदी रोटी , लसपसु कण्डालियो साग।
ठान्टू लगे दूधो गिलास ,तरबतर घयू की कटोरी
इकळवस्या सी सला सळ, सलकोणी बोडी चटोरी।

सेरी कुटुमदारी पाली, बुड्यांन दूध नौण मा
लीसा वाळू लिसू सारी ,डबकी सेरा बौण मा
अर छोरुंन दिली म नोकरी पे, ब्वे बाबू ते ठेंगा दिखे
बुड्यन दा च उमर जांणी, बूड़ बुड्यों गी रोण मा।

Language: Hindi
401 Views
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