गढ़वाली मुक्तक-1 | मोहित नेगी मुंतज़िर
हमारी अपणी आण साण, हमारा पुराणा लोकगीत
तिल्ले दाणी बांटी खाणु, ये च हमारी लोकरीत।
सब्यूँ दगड़ी भाईचारू,बिराणु भी ह्वे जांदू हमारू
ये पहाड़े हवा खेकि, दुश्मन बणि जांदू मीत।
रायसेरा की कूल पर, बांजु पडयूं रे घराट
पोर परार बाटिन दीदा, देखणु चा घटवे की बाट।
ह्युंद अर चौमास बीती, रैंन तेकी आस रीति
आजकल होयां रे दीदा, इलेक्ट्रिकल चक्क्यूं का ठाट।
गौं मा होयी भीड़ भाड़, गर्म्यु मां आयां लोग
वन त गों की किस्मत मां, कभ्हि पड़ी छो बिजोग।
जन्नी गौं मां पोंछी रोड़, उन्दू जाणे वे सकयासोड़
तनी सब मां माठु माठु ,बिबरी पलायन कु रोग।
रौण वाला रे भी गेन, पलायन का बथों मां
उ भी रोणा डुकरा डुकरी,के किस्मे ब्यथों मां।
सरकार सी निवेदन च , लोगुन कुछ न कुछ त कन च
एक एक मुरली दी दया ,सब्यों का हत्थों मां।
वींन पीसी सिलवटा मां , घररर घररर जडयो लोण
कैन काम परो बांधी ,केन रोटयूं दगड़ी बोण।
हम त बगिन पैसूं मां, दिल्ली न्वेडा बम्बे तलक
हमुन अपणा पैंसुन भी ,गौं कु स्वाद कखे ळयोण।