गंगा की पुकार
मां गंगा की इस विपदा को,
अन्तरमन की उस पीड़ा को।
क्यों कोई जन न देख सका,
क्यों कोई तन न भेद सका।।
मां गंगा अपने बच्चों से,
बस प्रश्न एक ही है करती।
क्यों तुमने मुझको मां है कहा,
क्यों फिर मुझमें यह विश है भरा।।
अपने जल से मैंने तुमको,
अन-धन सब कुछ प्रदान किया।
फिर भी तुमने करखानों के,
विश को क्यों मुझमें डाल दिया।।
धोकर के बच्चों के तन को,
मैंने खुद को मैला है किया।
फिर भी क्यों तुमने मुझ पर यूं,
अपने मल का जल छोड़ दिया।।
पूजा तुम मेरी करते हो,
श्रद्धा भक्ति भी रखते हो।
फिर क्यों कूड़े को भर-भरके,
मुझे में ही विसर्जित करते हो।।
पहले ही नीर को मेरे तुमने,
बांध बनाकर बांध दिया ।
फिर खुद रोशन हो करके भी,
क्यों जीवन मेरा नष्ट किया ।।
मत मानो तुम मुझको मां पर,
मुझमें अपनी यह गंध न घोलो।
ठीक हूं मैं पानी ही पर तुम,
मुझको गंगा मां न बोलो।।
यदि मां का दर्जा देते हो,
तो मुझ पर फिर उपकार करो।
फिर मेरे निर्मल तन पर तुम,
कचरे का मत प्रहार करों।।
दुर्गेश भट्ट