खुरदरी सतह
बचपन में फर्श की वो खुरदरी सतह जब फिसलना रोक दे जाया करती थी।
हमारी नाक उसपल सिकुड़ जाया करती थी।
मुहँ बिगड़ जाता था जब वो हमे ऐसे सताया करती थी।
चिकनी फिसलपट्टी न जाने क्यूँ हमें बहुत मजा दे जाया करती थी।
चिकने पन्नो वाली कापी, पुस्तक अच्छी लग जाया करती थी।
खुरदरे पन्नो वाली हमे नहीं भाया करती थी।
फिर क्यूँ आज खुरदरी सतह भाया करती है,
कान में ,मुहँ में, मन में, दिल पर आसानी से क्यूँ बन जाया करती है।
किसी की कुछ बात कान की खुरदरी सतह पे रुक जाया करती है।
हमको वो बहुत सताया करती है।
फिर दिल की खुरदरी सतह पे चिपक जाया करती है। दिमाग की खुरदरी सतह से बुरा भला सोचवाया करती है।
मुहँ की खुरदरी सतह से आग उगलवाया करती है।
फिर दूसरों में भी खुरदरी सतह बनवाया करती है।
ये वो खुरदरी सतह है जो लालच ,इर्ष्या, घमंड ये बन जाया करती है।
चलो फिर से उस चिकने फर्श ,फिसलपट्टी जैसा खुद को बनाये।
खुरदरी सतह तो सिर्फ आखाड़े खड़े करवाया करती है।
चलो ये वादा करें मिटा देंगे इस खुरदरी सतह को जो अपनों को अपनों से लडवाया करती है।