खुद ही खुद से मिलता चल
खुद ही खुद से मिलता चल
माना है दूर बहुत मंजिल और कदम-कदम पर अँधियारा
माना कि आज खड़ा है बनकर दुश्मन तेरा जग सारा
विश्वास का एक जला दीपक और निर्भयता से चलता चल
मंज़िल की राहों में अपनी तू खुद ही खुद से मिलता चल
तो क्या अगर तेरे पैरों के नीचे हैं अंगार बहुत
तो क्या जो अब तक भी तेरा समय रहा बेकार बहुत
तो क्या जो विपरीत हवाओं , का है अत्याचार बहुत
फिर भी तपती राहों पर , चलना है चाहे जलता चल
मंज़िल की राहों में …..
क्या सुना नहीं कि डूबते को तिनके का बहुत सहारा है
वो जिसने खुद को जीत लिया फिर कहाँ किसी से हारा है
माना कि दुनियाँ में सबने ही , सदा तुझे धिक्कारा है
पोंछ के आँसू फिर भी अपने ज़ख्मो को तू सिलता चल
मंज़िल की राहों में अपनी…..
इक दिन तू भी , आसमान में , बनकर सूरज दमकेगा
कभी तो एक दिन तेरी भी किस्मत का तारा चमकेगा
कभी तो सावन तेरी भी , इस , मरुधरा पर बरसेगा
बस तू काँटों में भी हरदम , फूल के जैसे खिलता चल
मंजिल की राहों में अपनी…..
सुन्दर सिंह
11.12.2016