खिल जाती हो…
खिल जाती हो तुम कहीं भी क्या तुम्हें शर्म आती नहीं
पानी – पत्थर घाम – शाम क्या तुम्हें डराती नहीं
एक हम हैं जो हुक्कमों से डरते फिरते हैं
जिन को चुन कर लाते हैं उन्हीं से डर कर जी जाते हैं
फिर खिलते हुए खुलते हुए हम शाम- ओ-सहर डर जाते हैं
अपनी अना के मोल पे फिर उनको हम बचाते हैं
एक तुम हो डरती नहीं दरारों में भी खिल जाती हो???
~ सिद्धार्थ