ख़ुदा के पास होता है …
ख़ुदा के पास होता है …
पाषाणों के मनकों से निर्मित
धरा का शृंगार करती
पर्वतों की ये गगन चुम्बी चोटियां
न जाने कितने सृजनों का संहार
अपने गर्भ में संजोये
मौनता के आवरण में स्वयं को समेटे रहती हैं
मनोरम वादियों से गुजरती
किसी नवयौवना सी बलखाती कोई पगडंडी
जब किसी मोड़ पर
अचानक लुप्त हो जाती है
तो ऐसा प्रतीत होता है
जैसे जन्मों तक साथ निभाने के वादे के साथ
बढ़ते युगल कदम
धुंध में लुप्त होने की आशंका से
ठिठक गए हों
सूर्य की रश्मियाँ
जब हिम से ढकी चोटियों को
अपनी रोशनी से नहलाती हैं
तो सृजनकर्ता की
अनुपम स्नेह बरखा का आभास होता है
जब कभी सफ़ेद बादलों की टुकड़ियां
हिम वस्त्र पहने शिखरों से
क्रीड़ा करती नज़र आती हैं
तो पाषाणों में भी गंगा निकल आती है
पाषाणों से निर्मित पर्वतों में बहती समीर
जब चिनार और देवदार के पेड़ों से लिपट कर बात करती है
तो पहाड़ों के सीने में धड़कनों का आभास होता है
कितना दूर है ज़मीं से ख़ुदा ,क्या पता
हाँ मगर नज़र जैसे ही
पथरीले पर्वत की चोटी को छूती हुई
नीले अंबर से टकराती है
वहां से आदम को
ख़ुदा के पास होने का आभास होता है
पर्वत से अभिमान वाला इंसान
पाषाणता त्याग देता है
सर झुकाता है सृजनकर्ता की सृष्टि पर
लौट आता है ऊंचाई से
और खुद
ख़ुदा की ज़मीं पे
ख़ुदा के पास होता है, ख़ुदा के पास होता है …
सुशील सरना