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6 Mar 2023 · 49 min read

खंड 7

भारतीय साहित्यकार डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी का वैश्विक हिंदी कोश

खण्ड-7-8

1- शिक्षक दिवस

गुरु देता सद्ज्ञान है,हर लेता अज्ञान।
पावन पारस मंत्र दे,गढ़ता दिव्य सुजान।।

काया को कंचन करत, मन को निर्मल साफ।
गुरु ही परम विरंचि है, करता शिशु को माफ।।

बड़े भाग्य से गुरु मिलत, रहत शिष्य के संग।
सदा पिलाता शिष्य को, सहज ज्ञान का भंग।।

ज्ञान गंग में स्नान कर,होता शिष्य विशिष्ट।
गुरु की कृपा बिना मनुज, रहता सदा अशिष्ट।।

गुरु में छिपे त्रिदेव हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश।
गुरु को दिल से जान लो, वही परम दिव्येश।।

गुरु सेवा से शिष्य को, मिलता पावन वेश।
सारे जग को शिष्यगण, देते शुभ सन्देश।।

सद्विवेक का जागरण, करता गुरु आसान।
गुरु को खोजो रात-दिन, सच्चा गुरु पहचान।।

गुरु के ही सम्मान में, छिपा आत्म सम्मान।
गुरुवर की पूजा करो, छोड़ दर्प-अभिमान।।

2- माँ सरस्वती का वन्दन हो
(चौपाई)

माँ सरस्वती का वन्दन हो।
आजीवन प्रिय अभिनंदन हो।।
ज्ञान गगन माँ एक तुम्हीं हो।
मुक्तिवाहिनी दिव्य तुम्हीं हो।।

कर्म प्रधान परम पावन हो।
सुखद वरद अनुपम सावन हो।।
दिव्य दृष्टि भक्तों को देती।
तामस भाव सहज हर लेती।।

घन घमण्ड को दूर भगाती।
ज्ञानगगन बन कर छा जाती।।
सारे दर्द सहन करती हो।
विद्या गंगा सी बहती हो।।

सब से प्यार किया करती हो।
नित ममता सब में भरती हो।।
पावन पावस बन आती हो।
मीठे भजन सहज गाती हो।।

नैया पार किया करती हो।
नाविक बन कर नित चलती हो।।
सब की पालनहार तुम्हीं ही।
उत्तम शिष्टाचार तुम्हीं हो।।

सदा मुक्ति की राह दिखाती।
भौतिकता का मोह मिटाती।।
तुम्हीं सृष्टि की अभियंता हो।
अति बलशाली हनुमंता हो।।

कृपा वृष्टि कर दो हे माता।
जगत प्रसिद्ध सहज सुखदाता।।
नित्य वंदना करूँ तुम्हारा।
तम हर ले माँ, कर उजियारा।।

3- गुरु कृपा (चौपाई)

गुरु का आशीर्वाद चाहिये।
सदैव कृपा-प्रसाद चाहिये।।
गुरु ही खेवनहार महा है।
रश्मिलोक की धार महा है।।

गुरु बिन ज्ञान असंभव जानो।
गुरु ज्ञानी को नित पहचानो।।
ज्ञानपुंज वह परम अलौकिक।
शिवनारायण दिव्य अभौतिक।।

गुरु को केवल नर मत जानो।
उन्हें ब्रह्मरूप सा मानो।।
गुरुमुख से जो निकलत वाणी।
उस में बैठी वीणापाणी।।

प्रातिभ महा विज्ञ अनुपम हैं।
ज्ञान विधान निधान सुगम हैं।।
जो गुरु को है नहीं जानता।
वह ईश्वर को नहीं मानता।।

शिष्य वही जो गुरु को भाता।
गुरु को उत्तम शिष्य लुभाता।।
जिसे ज्ञान की प्यास लगी है।
समझ शिष्यता वहाँ जगी है।।

भाग्यमान वह शिष्य कहाता।
जो सर्वेश्वर गुरु को पाता।।
गुरुकुल की है प्रथा पुरानी।
गुरु सिखलाता ज्ञान कहानी।।

गुरु में ज्ञानमयी गंगा हैं।
गुरु प्रमाण सत्य अंगा हैं।।
गुरु जिह्वा पर मधुर शारदा।
हंसवाहिनी दिव्य ज्ञानदा।।

गुरु को अमृत घट नित जानो।
उनको शीतल चंदन मानो।।
बिन गुरुवर के ज्ञान नहीं है।
आजीवन पहचान नहीं है।।

गुरु बिन मानव धक्के खाता।
स्थायी ठौर नहीं वह पाता।।
इधर-उधर भटका करता है।
निरा माथ पटका करता है।।

जो गुरु को सम्मानित करता।
चेतन बन कर सदा विचरता।।
हो नतमस्तक कर गुरु वंदन।
मुक्ति हेतु करते रह मंथन।।

विद्या पा कर मानव बनना।
भवसागर से पार उतरना।।
गुरुसेवक बन कर जो चलता।
शांतचित्त वह शिष्य गमकता।।

4- गुरु महिमा (चौपाई)

गुरु ही सकल लोक का नायक।
सर्व समर्थ स्वयं अधिनायक।।
परम ज्ञानमय शिव ज्ञानेश्वर।
ब्रह्म ज्ञान दिनकर माहेश्वर।।

लोकातीत मूल्य के रक्षक।
ज्ञानपन्थ के महा अधीक्षक।।
जीवन शैली दिव्य निराली।
करते सब की नित रखवाली।।

परम स्वतंत्र स्वयं विज्ञानी।
सत्यनिष्ठ सच्चा शिव ध्यानी।।
तपसी पावन विज्ञ ज्ञानमय।
नर्म मर्म मनमोहक मधुमय।।

धन्य न्याय यायावर यशमय।
शुभवादी भगवान राममय।।
ममता मान्य मान्यवर मधुरा।
परम लोक प्रिय सरसिज सुघरा।।

दयाशील संतुष्ट सभ्य नित।
सदा कृपाल लीन सब के हित।।
परमार्थी विद्वान मनीषी।
ज्येष्ठ श्रेष्ठ सद्ज्ञान महर्षी।।

स्वामी सखा सन्त सज्जनता।
शुद्ध स्वरुप शांत शुभमयता।।
सिद्ध सुजान सत्य सजधजता ।
सुखदाता सिद्धांत सुगमता।।

सावन श्यामल श्याम सनोहर।
सकल सबल सत सुरभित सोहर।।
शिव सारांश समंदर शानी।
गुरु माहात्म्य बखानत ज्ञानी।।

5- प्रेम के मधु बोल (दोहे)

सावन-भादों नयन में, उठत प्रेम की ज्वार।
उर में अति बेचैनियाँ, सत प्रतीकवत प्यार।।

अभिलाषा अंतिम अमित, उर अरु अंतस यार।
पाने को व्याकुल मनुज, शिव युग का मधु प्यार।।

मीठी बोली निष्कपट, त्यागयुक्त अनुराग।
दोषमुक्त संतुष्ट मन, ही प्रेमी का भाग।।

निर्छल सुथरा साफ मन, द्वंद्व रहित अभियान।
यही प्रेम का मर्म है, सहज प्रेम की जान।।

विद्यालय बन प्रेम का,मन से सबको चूम।
स्नेहिल अंतस की रहे, इस धरती पर धूम।।

घृणाविजेता प्रेम शिव, करे जगत से मेल।
सत्य-अहिंसा उपकरण, से ही खेले खेल।।

सुंदर दिव्य प्रवृत्ति का, प्रेम करे उपकार।
रुग्ण दुखी अति दीन का, सदा करे उपचार।।

कुत्सित सोच मिटाय के, प्रेम करे विस्तार।
बुद्धि शुद्धि के मंत्र का, होये आविष्कार।।

मन-काया-उर-आतमा, में नित प्रेम समाय।
निराकार यह अमित नित,दे सबको प्रिय राय।।

दया करुण संवेदना,का होये विस्तार।
मानवता का पाठ ही, बने पुस्तकाकार।।

बोली प्रेम सुशांतमय,विनयावनत प्रसन्न।
आह्लादक मोदक मधुर, रहत हॄदय आसन्न।।

6- जिह्वा रानी (दोहे)

आग लगे उस जीभ पर , जो दे चोर बनाय।
अपने तो मस्ती करे, चोर लात बहु खाय।।

जिह्वा पर संयम नहीं, मन स्वच्छंद अधीर।
बहता जाता देह नित,जिमि मटमैला नीर।।

जो जिह्वा विष बो रही,उस जिह्वा को काट।
जिससे अमृत बरसता, उस जिह्वा को चाट।।

जिह्वा सुंदर सुघर हो, रूपसि होय अपार।
बोले घूँघट से सहज, लगे दे रही प्यार।।

जिह्वा अति मदमस्त हो, करे मनुज को मस्त।
प्रेम-सूर्य का उदय हो, घृणा होय अब अस्त।।

जिस जिह्वा पर शारदा, मैया दिव्य सवार।
उस जिह्वा में है छिपा, सात्विक प्रेम अपार।।

सब कुछ दुर्लभ-सुलभ है,यह जिह्वा का खेल।
जिह्वा से विद्रोह है, जिह्वा से ही मेल।।

इस सम्पूर्ण शरीर में, जिह्वा है अनमोल।
जिह्वा को आगे रखो, बोलो मोहक बोल।।

जिह्वा से आनंद लो, जिह्वा से कर काम।
जिह्वा रानी नित जपे,राम राम श्री राम।।

जिह्वा सज-धज कर चले, इसको रानी जान ।
रानी से टपके सतत,सरस मधुर रस ज्ञान।।

जिह्वा सबसे प्रेम कर,चले हंसिनी चाल।
मीठे शब्दोच्चार से,जग में करे कमाल।।

जिह्वा पर ही खोज हो, जिह्वा पर संधान।
जिह्वा से ही प्रेम कर, इसे प्रेमिका मान।।

जिह्वा से झर-झर बहे, प्रेम सिंधु का ग्रन्थ।
प्रेमी जिह्वा से निकल ,दिखे मधुर शिव पन्थ।।

जिह्वा से संवाद कर, सकल विश्व को मोह।
परम प्रेमिका अनुपमा, करे सभी से छोह।।

7- प्रतिभा (चौपाई)

जिसमें आभा वह प्रतिभा है।
दिव्या ज्ञानवती शोभा है।।
यह कुशाग्र बुद्धि का द्योतक।
सद्विवेकमय अग्र सुबोधक।।

प्रतिभा आगे-आगे चलती।
अभिनव पावन चिंतन करती।।
पराधीन नहिं, आश्रयदाता।
नित प्रयोगवादी विख्याता।।

प्रतिभा का कुछ जोड़ नहीं है।
प्रतिभा का कुछ तोड़ नहीं है।।
यह स्वामी अगली पंक्ती का।
ज्ञानरसिक पावन शक्ती का।।

स्वाभिमानमय अग्रिम चिंतन।
आत्मोत्कर्षित विज्ञ सुदर्शन।।
सहज ज्ञान की अद्भुत प्रतिमा।
महा ज्ञान की उत्तम उपमा।।

अति यथार्थ विज्ञान विशेषण।
प्रति पल होते शुभ अन्वेषण।।
असाधारण प्रखर मनीषा।
ज्ञानसुधासागर जगदीशा।।

समझदार विद्वान सुयोग्या।
परम विलक्षण बुद्धि प्रयोग्या ।।
अति अविलम्ब सोच मनभावन।
तात्कालिक प्रश्नोत्तर आवन।।

महा बुद्धि सागर प्रिय न्यायी।
ज्ञान-समाज सभ्य सुखदायी।।
परम विनीत निसर्ग सु-आसन।
ज्ञान शीर्ष पर प्रतिभा-वासन।।

8- मदिरा सवैया

आदर जो करता सब का, वह आदर निश्चित पावत है।
भाव नहीं जिसके उर में, वह आपन काम नशावत है।
भाव भरा जिसने दिल में, उसको हर मानव गावत है।
भावुक रूप सदा मनमोहक, भाव भरा मन भावत है।

काव्य रचो अति भावुक हो, सब के मन को बहलाय चलो।
शब्द निरन्तर मोहक हों, गतिमान सुछंद बनाय चलो।
गेय बने कविता -सरिता,मधु गायन से नहलाय चलो।
छंद विधान चुनो मनमाखन,भाव प्रधान बनाय चलो।

भाव नहीं समझा जिसने, वह दानव नीच अपावन है।
भाव अमूल्य सदा सत है,शिव सुंदर देव सुहावन है।
भाव स्वभाव धरे मधुवेश, विदेह पिता प्रिय कानन है।
वाक्य सुबोल कहे रसना, मनमाफिक प्रीति सुहागन है।

9- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

ममता वैश्विक हो सहज, मानवता से प्यार।
लोक तंत्र की नींव को,नहीं हिलाओ यार।।
नहीं हिलाओ यार,समतावाद सिखलाओ।
बोना मानव-बीज, लोक में प्रियता लाओ।।
कहें मिसिर कविराय, रहे नहिं मन में कटुता।
करो जीव से स्नेह, जगे दुनिया में ममता ।।

पावन मन-मस्तिष्क का,करना नित विस्तार।
शुद्ध हृदय के गेह का, होता स्वर्गिक द्वार।।
होता स्वर्गिक द्वार, हंस कलरव करता है।
सदा सरस्वति वास, सुखद वाचन चलता है।।
कहें मिसिर कविराय, मनाओ निशिदिन सावन।
कर सब का उद्धार, बने मन जग का पावन।।

सात्विक वह जो निष्कपट,अति पावन मन-गात।
शुद्ध हृदय निर्मल धवल,बुद्धि विमल निष्णात।।
बुद्धि विमल निष्णात, परम सुंदर हितकारी।
सब के प्रति अनुराग, प्रेम अति मंगलकारी।।
कहें मिसिर कविराय, बने जो जग का नाविक।
वह सत्युग का मान, बढ़ाता बन कर सात्विक।।

10- साहस (चौपाई)

सब चुनौतियाँ सरल दीखतीं।
कठिन क्रियाएँ अति प्रिय लगतीं।।
नहीं असंभव कुछ भी पाना।
नहीं परिश्रम से घबड़ाना।।

निर्भयता ही जीवन धारा।
निडर मनुज ही सुंदर प्यारा।।
घोर परिश्रम करनेवाला।
पीता है मधु मादक हाला।।

साधक हर्षक सहज सुकर्मी।
सावन हर विधि सत्य सुधर्मी।।
साँच हृदय संतुष्ट सयाना।
सतत साहसी कर्म प्रधाना।।

कभी न डिगना आगे बढ़ना।
प्रत्युत्तर बन डटकर रहना।।
दुर्लभ को नित सुलभ बनाना।।
साहस का है धर्म तराना।।

मानववाद दिव्य मन लायक।
आशावाद सभ्य प्रिय नायक।।
सुंदर स्वीकृति मोहक कृतियाँ।
साहस रचता सत -विभूतियाँ।।

“सा” से साधन,”ह'” से हिम्मत।
“स” से सत्यमेव पर सहमत।।
साहस है चौकानेवाला।
चमत्कार दिखलानेवाला।।

“सा'” से सावधान हो चलना।
“ह” से हिय को अति दृढ़ रखना।।
“स” सेवक है सदा बनाता।
साहस प्रति पल शीर्ष दिखाता।।

यह निसर्ग अति पावन गंगा।
साहस का मन निर्मल चंगा।।
जो साहस का पाठ पढ़ाता।
वह मनमोहक जगत बनाता।।

साहसहीन मनुज अति कायर।
अर्थहीन झूठा कद्दावर।।
साहस का केवल मतलब है।
दुर्गम जीवन लक्ष्य सुलभ है।।

11- मैं हिंदी हूँ (सोरठा)

मैं हिंदी अनमोल, प्रेम वाचन करता हूँ।
हिंदी अमृत घोल, जीवनी शक्ति जगत की।।

हिंदी पावन मीत, जगत की रचना करती।
लिखती मोहक गीत,रची बसी है विश्व में।।

हिंदी से ही प्रेम,किया करता मैं प्रति पल।
हिंदी योगक्षेम,वहन करती है नियमित।।

हिंदी पावन ग्रन्थ, रचा करती रहती है।
दिखलाती शिवपन्थ,अति कल्याणी सुखद यह।।

मेरे रग में हिन्द, हिन्दसागर भी मैं हूँ।
हिंदी शिवगोविंद, मिलती सबसे प्रेमवत।।

मुझको हिंदी जान, हिंदी रचनाकार मैं।
यह मेरी पहचान, हिंदी लिख कर जी रहा।।

हिंदी ही सम्मान, परम स्वर्गिक भाषा है।
कर हिंदी का ज्ञान,बनो सुंदर प्रिय मानव।।

हिंदी मेरी जान, बिना इसके मन सूना।
परम सुशील सुजान, यही करती है सब को।।

हिंदी पर है गर्व, यही उन्नत भाषा है।
समझो इसको पर्व, सहज मनाते नित चलो।।

संस्कृति दिव्य महान, हिंदी को ही जानना।
यह भाषा उत्थान, करती रहती आत्म का।।

बोलो हिंदी नित्य,नृत्य करो नर्तक बनो।
हिंदी अतिशय स्तुत्य,सकल लोक की शान यह।।

12- हिंदी मेरी प्रेमिका (दोह ग़ज़ल)

हिंदी मेरी प्रेमिका, हिंदी से है प्यार।
हिंदी मेरी जीवनी, यह उत्तम पतवार।।

हिंदी जेहन में सतत,करती नित्य निवास।
हिंदी पावन भाव से, करती आत्मोद्धार।।

हिंदी मोहक मंत्रमय, हो इसका ही जाप।
हिंदी सुखदा सभ्यता,का हो जग-विस्तार।।

सर्वगुणी सम्पन्न अमि,हिंदी मीठे बोल।
हिंदी में संवाद कर,रच मोहक संसार।।

हिंदी को मत छोड़ना, कभी न जाना दूर।
स्वस्भिमान से युक्त हो, दो हिंदी को धार।।

लोचदार कमनीय प्रिय, बहुत मधुर यह बोल।
हिंदी को कंठस्थ कर, जग को दो ललकार।।

यह अति मोहक भाव -मन,मस्तक उन्नतशील।
हिंदी के प्रिय हृदय में, मानव का लीलार।।

हिंदी लेखन है सहज, अति ऊर्जा का स्रोत।
हिंदी लिख-पढ़ कर मनुज, बनता रचनाकार।।

जिसको हिंदी आ गयी, बना जगत का शेर।
हिंदी पूरे विश्व में, सदा भरे हुंकार।।

हिंदी से ही प्रीति हो, कर हिंदी का ज्ञान।
हिंदी बोलो प्रेम से, निःसंकोच प्रचार।।

मानवता संवेदना,को हिंदी में देख।
बहु मूल्यों की संपदा, के हिंदी में तार।।

हिंदी मानववाद है, हिंदी चेतनशील ।
हिंदी पावन गेह में, रहता शुद्ध विचार।।

हिंदी जिसकी धड़कनें,वह अतिमानव दिव्य।
हिंदी में रहता सदा,सुंदरता का सार।।

हिंदी कोमल मधुर उर, हिंदी संज्ञासिद्ध।।
हिंदी में सद्ज्ञान है, प्रेमसिंधु का ज्वार।।

हिंदी बौद्धिक अति सुघर, दिव्य लोक प्रिय धाम।
हिंदी में रहता सदा, प्रिय-मानव-संसार।।

प्रियता -मधु -माधुर्य का, हिंदी अनुपम देश।
हिंदी कहती जगत से, मानव का उद्गार।।

हिंदी मायातीत है,परमेश्वरमय जान।
हिंदी जीवन-शैल की, महिमा अपरंपार।।

सद्भावों के मेल में, हिंदी दर्शन योग्य।
हिंदी -मेल-मिलाप से, कर जीवन-भव पार।।

13- हिंदी मेरी माँ की भाषा
(चौपाई)

हिंदी मेरी माँ की भाषा।
सुंदर मानव की यह आशा।
हिंदी से ही जन्म खिला है।
हिंदी से ही अन्न मिला है।।

हिंदी में जागा सोया हूँ।
हिंदी में रोटी पोया हूँ।।
हिंदी का जल अति निर्मल है।
हिंदी वायु शुद्ध उज्ज्वल है।।

हिंदी का है व्योम निराला।
यह मीठे वचनों की हाला।।
सकल धरा पर हिंदी उत्तम।
मोहक हिंदी शिव पुरुषोत्तम।।

हिंदी भव की पावन सरिता।
विश्वमोहिनी हिंदी कविता।।
भवसागर हिंदी को जानो।
हिंदी-रत्न सदा पहचानो।।

सोंधी हिंदी की माटी है।
मौलिकता की परिपाटी है।।
हिंदी में सद्ज्ञान छिपा है।
हिंदी में ही प्रेम-वफ़ा है।।

जो हिंदी को नहीं जानता।
आजीवन केवल पछताता।।
हिंदी से ही जन्मभूमि है।
हिंदी पावन पृष्ठभूमि है।।

हिंदी को जो अपनाता है।
मोहक मानव कहलाता है।।
हिंदी का जो प्रिय अनुरागी।
जग में वह मानव बड़ भागी।।

हिंदी ही उत्तम रिश्ता है।
बिन हिंदी जीवन घिसता है।।
जो हिंदी में लेखन करता।
प्रेम-ध्वजा ले सदा थिरकता।।

प्यारे! हिंदी को अपनाओ।
अपना जीवन सफल बनाओ।।
बन जाओ तुम लेखक-चिंतक।
कवि-कोविद सब का शुभ चिंतक।।

हितकारी बन मंगलकारी।
दिव्य मनीषी शिष्टाचारी।।
जानो हिंदी को अंत्योदय।
सकल विश्व हेतु सूर्योदय।।

ऋषि-मुनिवर हिंदी में रहते।
गुरु वशिष्ठ हिंदी में रमते।।
सन्दीपनि का गेह यही है।
महा वृहस्पति स्नेह यही है।।

जिसने हिंदी को अपनाया।
वही आत्मदर्शन कर पाया।।
हिंदी पर यदि गर्व करोगे।
विश्व शांति का पर्व बनोगे।।

हिंदी में नायक रहता है।
प्रिय सपूत लायक बनता है।।
हिंदी में है प्रेमशिरोमणि।
बल-बुधि-विद्या-ज्ञान-रत्नमणि।।

हिंदी में मानव बसता है।
हिंदी से दानव डरता है।।
हिंदी वैश्विक प्राणदान है।
महा मंत्रमय आन-बान है।।

यही हॄदय का दिव्य केंद्र है।
अवधपुरी का राघवेंद्र है।।
महिषासुर का मर्दन करती।
माँ दुर्गा का वन्दन करती।।

पूजनीय नमनीय यही है।
अति भावुक कमनीय यही है।।
हिंदी माँ में कोमलता है।
विश्वव्यापिनी निर्मलता है।।

हिंदी का इतिहास नगीना।
हिंदी सावन श्वांस महीना।।
हिंदी में नित पावनता है।
मोहक चंदन शीतलता है।।

हिंदी में जो रचा-बसा है।
सारे जग में वही हँसा है।।
जो हिंदी से नफरत करता।
सिर धुन-धुनकर केवल रोता।।

हिंदी पावन स्तुत्य मर्म है।
मानवता का सत्य धर्म है।।
प्यारे! अब हिंदी बन जाओ।
माथे की बिंदी बन गाओ।।

सदा प्रीति का पाठ पढ़ाओ।
सरल रीति की राह दिखाओ।।
बन जाओ जगमीत महातम।
मिटने दो अब रोग-तिमिर-तम।।

यह केवल हिंदी से संभव।
हिंदी बिन यह निरा असंभव।।
हिंदी से रच दे संसारा।
प्यारा मोहक सुखमय सारा।।

14- अभिनव प्रयोग

अभिनव होय प्रयोग सुहावन,जंगल में अब मंगल होगा।
नयी-नयी रचनाएँ होंगी, नव छंदों का होगा योगा।
जोड़-तोड़ की कविता होगी, नव निर्माण करेंगे लोगा।
मधुरिम भाव विशाल हृदय की,कविता खत्म करेगी रोगा।

नवाचार का उद्गम होगा, नयी सोच अब लहरायेगी।
नव्य रसों से सिंचित कविता,नवधामृत रूप दिखायेगी।
निर्मित होंगे नये भाव सब, नयी चेतना नित आयेगी।
नव छंदों में ललित लालिमा,कवित क्रांति कवि उर छायेगी।

15- सारा जीवन धन्य तभी है-

सारा जीवन धन्य तभी है,
जब मन निर्मल हो जाएगा।

पापी -गठरी सिर से उतरे,
मन चंगा तब हो जाएगा।

बनें हितैषी हम धरती के,
जग में मंगल हो जाएगा।

लघु बनकर सब जीना सीखें,
सहज बड़प्पन दिख जाएगा।

निर्छल मन का होय अवतरण,
साफ-स्वच्छ जग बन जाएगा।

प्यासे मनको शांति मिलेगी,
आत्मतोष जब जग जाएगा।

आत्मज्ञानमय जगती होगी,
जब घमण्ड कुचला जाएगा।

सात्विक प्रेम अंकुरित होगा,
सत्य पन्थ जब मिल जाएगा।

कलुषित तन-मन पाक बनेगा,
नीर-कमल जब खिल जाएगा।

लिप्त रहे मन सदा सत्य में,
पावन भाव तभी आएगा।

नहीं परायापन मन-उर में,
परहितवाद पुनः जागेगा।

रोग ग्रस्त अवसाद ग्रस्त की,
सेवा से मन खिल जाएगा।

रामराज्य आयेगा जग में,
यदा कुशासन हिल जाएगा।

सारा जीवन धन्य तभी है,
दुष्ट भाव जब मिट जाएगा।

धन्य वही है सकल लोक में,
जो शिव-मानव बन जाएगा।

शिवता में है सहज धन्यता,
पात्र -धन्य सब पा जाएगा।

16- दुर्मिल सवैया

तुम सुंदर भव्य मनोहर भाव, विचार महातम ज्ञान भरा।
अरुणा अरुणोदय लाल प्रभा, अरुणाभ अनंत असीम धरा।
तरुणी घरनी गृह कौशल युक्त, सदा मन में अति हर्ष हरा।
धरणी सुघरी शिव शक्ति स्वरूप, शिवा महिमामृत प्रेम धरा।

अरुणामृत ज्ञान सुधा वसुधा,ललिता अति लालिम रंग प्रिया।
शिव जंग सदा विजयी जग में, अरुणांचल रूप प्रदर्श हिया।
अरुणाकर नाम प्रसिद्ध सदा, अरुणामय तत्व अमी रसिया।
जिसके मन में अभिमान नही, उसने शुभ काम तमाम किया।

प्रिय रूप स्वभाव सदा विदिता, मन मस्त विवेक चला करता।
मधु मास हिये प्रिय राग खिले, अनुराग में विम्ब सदा दिखता।
अति शीघ्र प्रसन्न सदा सुमुखी, दिल से दिलदार सदा मिलता।
मधुराग सुहाग सुभाग सुहाय,सहाय सयान सदाशयता।

छवि मोहक प्रातिभ नव्य विभा, नव दिव्य चमत्कृत नायक है।
मन से अति तुष्ट महामन सा,प्रिय शिष्ट सुबोध सुलायक है।
दिखता मन में नहिं पाप कभी, अति पुण्य प्रताप विनायक है।
अरुणालय आलय लाल किला,अरुणा प्रिय काव्य रचायक है।।

17- सोरठरोला (सोरठा कुच मर्दनम)

जो करता है प्रीति,वही सच्चा मानव है।
जिसकी विधा अनीति, वही राक्षस दानव है।।

सदा प्रीति का दान, दिलाता स्थायी सत्ता।
जहाँ खड़ा अभिमान, वहीं पतझड़ का पत्ता।।

जहाँ ज्ञान-विज्ञान, वहीं विकसित पथ बनता।
जहाँ महान सुजान,वहीं सब सुंदर लगता।।

सोरठरोला नव्य, परम यह मंगलकारी।
छंद बहुत है भव्य, मधुर मोहक सुखकारी।।

कुच का मर्दन होय, सोरठा-रोला जागे।
दोनों रोटी पोय,एक हो आये आगे।।

अभिनव सफल प्रयोग, छंद दोनों खुश होते।
कर आपस में योग, उभय नव बीजक बोते।।

सोरठरोला छंद, बहुत लगता मनभावन।
मिलत अधिक आनंद, लगत बरसत है सावन।।

होता रहे प्रयत्न, योग नव नूतन करना।
होय ज्ञान का यत्न, नव्य छंदों को गढ़ना।।

सोरठरोला नित्य, करे हित का संवर्धन।
होय हृदय से स्तुत्य, पूज्य सहस्र अभिनंदन।।

18- सोरठरोला
(अभिनव अन्वेषण)

पढ़ना सात्विक ग्रन्थ, महामानव बन जाना।
मन में हो शिव पन्थ, जगत को राह दिखाना।।

समझ स्वार्थ को तुच्छ, धाम परमारथ जानो।
करना मन को स्वच्छ, सदा मन को पहचानो।।

करना है यदि नाम, कर्म परहित में करना।
रहो सदा शिवधाम, अहितकर से नित बचना।।

जिसके मन में पुण्य, वहीं पाता है सद्गति।
पापी निरा अपूज्य, भोगता दानव दुर्गति।।

त्यागो गन्दी नीति, सभ्य मानव बन जाओ।
पालन करो सुनीति, इसी से धर्म निभाओ।।

काम-क्रोध हैं रोग, मुक्त इनसे होना है।
कर विवेक का योग, सदा मानस धोना है।।

मानवता से प्यार,किया करता सज्जन है।
द्वेष भाव कुविचार, ग्रस्त रहता दुर्जन है।।

गुण की पूजा होय, जहाँ वह विद्यालय है।
मन का मेला धोय, मनुज प्रिय शिव-आलय है।।

19- रोली
मात्रा भार 11/11
सम चरण तुकांत
11 -11 पर यति
(अभिनव अन्वेषण)

सज्जन से कर प्रेम,सज्जन सुजन महान।
सज्जनता प्रिय धर्म, मन से कर गुणगान।।

मत पहुँचाना कष्ट, रच सुखदा प्रिय राह।
बनो सुखी इंसान,रख हितकारी चाह।।

धोखा देना पाप, रहो संत के ग्राम।
सच्ची राह बताय,बन नैसर्गिक धाम।।

भूलो अपना देह, कर आतम को याद।
लगे ईश से नेह,करो नित्य फरियाद।।

मानव बनना सीख, तपसी बनो कठोर।
उत्तमता ही ध्येय, सतत लगाओ जोर।।

पारस पावन स्तुत्य, लौह कनक बन जाय ।
सन्त मिलन सौभाग्य,एक सुकर्म सहाय।।

सच्चे सुंदर मीत, होते संकटहार।
नहीं छोड़ते साथ, बनते पालनहार।।

आभा का कर थाम, चला जो नित करता।
प्रतिभा से सम्पन्न, वही आगे बढ़ता।।

20- दुर्मिल सवैया

मन पागल होय चला मिलने, पर मीत नहीं दिखता जग में।
दिल खोज रहा पर पावत ना,अति कंटक राह दिखा मन में।
मनमीत पुनीत विनीत मिले,यह सोच धँसी रहती रग में।
प्रिय मीत बसा जब से उर में,प्रति चक्र पड़ा दिखता पग में।

यदि मीत नहीं मिलता मन का, यह जीवन नर्क समान लगे।
मन व्याकुल होय सदा तड़पे, अति कष्टकरी दुख-शोक जगे।
रहती मन में नहिं शांति कभी, सब भोग-सुखाकृति जाय भगे।
सब छोडत साथ चला करते,रहते नहिं संग सहार सगे।

21- दोहा सजल

आभा की मुस्कान में, है अति मीठा प्यार।
आभा रचती आ रही, अति सुंदर संसार।।

आभा प्रतिभा पुंज है, दिव्य ज्ञान की शान।
आभा कहती विश्व से , बन उत्तम परिवार।।

घनीभूत है लालिमा, आभा की पहचान।
अद्भुत आभा ही सरल, सारे जग का सार।।

सुंदर सोच निवास गृह,है आभा की चाह।
बुद्धिमान में दीखती, आभा की ललकार।।

भावुक मन की खोज में, आभा विचरत नित्य।
हर भावुक इंसान पर, आभा का अधिकार।।

आभा पावन हृदय का, मत पूछो कुछ हाल।
आभामय दिखता सहज, ईश्वरमय दरबार।।

आभा की शोभा विरल,यह है सबकी चाह।
आभा उसको चाहती, जिसे प्राणि से प्यार।।

आभा खोजत प्रेम को, इसी रंग से नेह।
सदा घृणास्पद दनुज को, देती यह दुत्कार।।

चेहरे पर रहता सहज, इंद्रधनुष का भाव।
सप्तरंग अनुपम चमक, आभा का मनहार।।

स्वच्छ-शुद्ध-पावन-सजल, है आभा की देह।
अधरों को है चूमती, शीतल सुखद बयार।।

आभा की शुचिता परम, दिव्य अलौकिक गंध।
आभा करती विश्व का, सर्वोत्तम विस्तार।

स्वर्ग लोक की यह परी,उड़ती गगन अनंत।
मानवता के जिस्म-मन, पर करती उपकार।।

जीव मात्र की रक्षिका, आभा व्यापक भाव।
व्यापकता के अर्थ का,करती नित्य प्रचार।।

आभा से ही प्यार जो, करता वह अति सभ्य।
आभा धार्मिक संहिता, मोहक शिष्टाचार ।।

इसी अलौकिक वस्तु से, जो करता है प्रेम ।
बनता आभावान वह, पाता शुभ संस्कार।।

आभा की प्रतिभा गढ़त, चमत्कार नेतृत्व।
सकल जगत में है बनत, आभा की सरकार।।

22- रोली सजल
(अभिनव छंद)

अभिनव का सत्कार, धर्म प्रायोगिक है।
होता रहे प्रयोग, कर्म यह भौतिक है।।

नूतन चिंतन होय, नयापन आयेगा।
उत्तर होय विकास, मर्म प्रिय लौकिक है।।

रहे प्रयोगी भाव, नये-नये को खोज।
हो अभिनव विस्तार, आज मन ऐकिक है।।

रुकना लगता व्यर्थ, बढ़ो निरन्तर रोज।
क्रमशः करो प्रयास,सुखद यह नैतिक है।।

गुण का नवल प्रयोग,नित नयापन लाता।
लगातार नव योग, सुखद नव स्वैच्छिक है।।

रख वैज्ञानिक वृत्ति, चिंतन चले अनंत।
चलो गगन-पाताल, भाव नैसर्गिक है।।

23 दुर्मिल सवैया
(श्री सरस्वती वंदना)

तुम माँ जग की परमातम दिव्य, सुसभ्य प्रिया दुखहारण हो।
ममता जिमि मूरत साख्य सखी, भगिनी जननी सुखकारण हो।
पय पान करावत भाव दिखावत, ज्ञान दिलावत तारण हो।
सबकी रसना पर बैठ तुम्हीं, हर बात सुनावत चारण हो।

तुम आदि अनंत असीम धरा, प्रिय व्योम महा बुधिसागर हो।
तुम नीर बनी बहती जग में, रणधीर सुविज्ञ सुधाकर हो।
नवनीत बनी नव प्रीति बनी, नव गीत बनी मधु आखर हो।
जब हंस चला करता मग में, तुम क्षीर विवेक उजागर हो।।

मधु मादक बोल सुडौल सदा, कर में शुभ ग्रन्थ सुशोभित है।
शुभ वीन बजा करता रहता, सगरी जगती अति मोहित है।
शिव ज्ञान विराट महालय पर,धरती खुद ही अति लोभित है।
शिवराम जपा करते मन में, प्रिय मात सुहाग सुबोधित है।

24- सरस्वती माँ पर दुर्मिल सवैया

जब मात कृपा मिलती जिसको ,वह सुंदर मानव ही बनता।
बिन मातृसुधा मन धूमिल है,नहिं मानव विज्ञ कभी दिखता।
जब मातृ सुपूजित हो हिय से, तब ज्ञान पिपास सदा बुझता।
जब माँ चरणामृत भोग मिले, तब बुद्धि-विवेक सदा खिललता।

चढ़ हंस सदा चलती ममता, प्रिय मातृ सदा शुभदायक है ।
सबको सिखलावत ज्ञान -विराग, शुभाश्रय भावविनायक है।
लिख ग्रन्थ सदा मनमोहक भाव, दिखावत राह सुनायक है।
लिखती रहती शिव गीत सदा, अति भावप्रधान सुगायक है।

रचना करती अति मोहक सी, सबके मन को अति भावत है।
यह लोक पढ़ा करता कृति को,कर याद सदा हिय गावत है।
बसती जिसके उर में ममता,प्रिय मात वही सब पावत है।
जब शारद मात कृपा करतीं,तब मातृ गृहे जग आवत है।

25- दुर्मिल सवैया

वह भारत देश महान विशाल, जहाँ करुणा-वरुणा बहती।
वह देश सुजान सयान सदा, जिस के घर में अमरा रहती।
वह भारत पावन भूमि विशेष, जहाँ दय -वृत्ति बनी दिखती।
उस भारत से अति स्नेह रखो,जिसमें ममता सजती चलती।।

मत भारत से तकरार करो, इसका अपमान नहीं करना।
यह प्रेममयी रसधार बहावत, दिव्य बने चलते रहना।
अति व्यापक ब्रह्ममयी वसुधा, इस भारत को अपना कहना।
यह हिन्द महा जय हिंद यही, अरुणामृत भाव सदा रखना।

यह देश नहीं यह स्वर्ग समान, यहाँ सुख-शांति बनी रहती।
अधिनायकवाद नहीं मन में, बस सत्य -सुधा हिय में बहती।
यह न्याय सुपंथ बनावत है,प्रिय राह सदा बनती दिखती।
सबके हित की यह बात करे, सबमें शिव-बुद्धि बना करती।

यह देश अलौकिक धाम-धरा, इसके कण में शिवशंकर हैं।
यह धर्म-अधर्म बतावत है,अति व्यापक धर्मधुरंधर है।
यह योग सिखावत ज्ञान बतावत, यज्ञ करावत मंतर है।
प्रिय मानव सुंदर की रचना, करता यह भारत जंतर है।

सबके प्रति आदर भाव भरा, करता यह देश सुहावन है।
शुभ चिंतक हो उपकार करे, यह भारत उत्तम पावन है।
शुभकर्म सिखावत दृष्टि दिलावत, सौम्य बनावत भावन है।
विनयामृत पान करावत जात,सुपात्र सजावत सावन है।

मधुलोक दिखावत ब्रह्म बतावत, सत्य स्वरूप बना चलता।
सहयोग करावत ध्यान लगावत,इन्द्रिय निग्रह ही करता।
पुरुषार्थ चतुष्ठय को समझावत,आश्रम रूप स्वयं बनता।
प्रियवाद सदा सुखवाद सदा, शिवशंभु सुहाग बना रहता।

26- दुर्मिल सवैया

जब प्रीति जगी अति प्यार मिला , तब हर्ष हुआ, मधु भाव पगा ।
तब ईश दिखे भव पार हुआ, मन में उजियार विचार जगा।
यह जीवन का उपहार अपार,मिला अँधियार तुरन्त भगा।
मन शांत हुआ सब भ्रांति मिटी, सुख-चैन मिला दिल प्रेम रंगा।

जब जीवन में अनुराग मिले, अति स्नेहिल वारिश होय यदा।
जब प्रीति लोभाय पिया तन को, अपने कर से सहलाय सदा।
जब प्रीति बसे पिय के हिय में, निकले न कभी सुख देय सदा।
तब प्रेम प्रकोष्ठ प्रशांत बने,खुश पंकज भाव खिले उमदा।

जब जीवन होय अछूत निरा,नहिं प्यार मिले शिशु पावन को।
नहिं मात-पिता मनरक्षक होय,प्रताड़न देत बिगाड़न को।
शिशु दीन बना विचरा जग में,बिन भोजन घूमत गाँवन को।
यह देख दशा दुख होत सदा, बिन प्रीति कुपोषित लालन को।

जिस जीवन को नहिं प्रेम मिला, वह जीवन सार्थक है न कभी।
जब जीवन को अति मान मिले, तब जीवन सार्थक होय तभी।
वह मानव हो खुशहाल तभी,जब प्रेम-सुपात्र कहे जग भी।
यदि लालन-पालन में शुचिता,तब प्रेम मुकुंद बने मन भी।

27- चौपई
मात्रा भार 15

करना सज्जन जन से प्यार।
दुर्जन मन का कर प्रतिकार।।
बोलो मानवता की बोल।
सबके मन में मधुरस घोल।।

जीवन को रखना खुशहाल।
रखना अपना उन्नत भाल।।
सबकी सेवा करना सीख।
चारोंओर मनुज सा दीख।।

घृणाभव को दो अब त्याग।
सबके प्रति रख मधुमय राग।।
दिवास्वप्न को देना छोड़।
अंधकार से नाता तोड़।।

सुंदर संस्कृति का निर्माण।
राष्ट्रवाद का शुद्ध प्रमाण।।
राष्ट्रहितों में करना काम।
होगा जग में रोशन नाम।।

मन में अगर अटल विश्वास।
छूता मानव उच्चाकाश।।
करना स्वस्थ समाज विकास।
करो परिश्रम से सहवास।।

28- चौपई

करो सदा मानव से प्रीति।
दर्द भगाओ यही सुनीति।
करते रह मानव कल्याण।
भरो देह में सबके प्राण।।

नहीं नीच से कर संवाद।
राह छोड़ मत करो विवाद।।
कभी न दुष्टों का मुँह देख।
सिद्ध संत पर लिखो सुलेख।।

नहीं पतित को करो समर्थ।
भस्मासुर कर देत अनर्थ ।।
नहीं क्रूर का कर सम्मान।
क्रूर ग्रहों का हो अपमान।।

कभी स्वार्थ को मत संपोष।
परमारथ का हो उदघोष ।।
धरती पर हो परहितवाद।
दुष्कृत्यों का नित प्रतिवाद।।

देवलोक का हो विस्तार।
सुन्दर मानव का संचार।।
सात्विक भावों का भण्डार।
तम-गुण का हो बंटाधार।।

सच्चाई का खेला खेल।
कभी न लुच्चों से कर मेल।।
कर नैतिकता पर विश्वास।
पूरी कर दुखियों की आस।।

परम तपस्वी रचनाकार।
से बनता उत्तम संसार।।
निर्मल मन के भाव उकेर।
सत्कर्मों की माला फेर।।

जो लिखता है पावन लेख।
वही खींचता सच्ची रेख।।
जिसके उत्तम साफ विचार।
वही रचयिता दिव्याकार।।

पर निंदा से कर परहेज।
मानव वंदन सदा दहेज।।
गंदे मन को नियमित मार।
प्राणि मात्र से कर नित प्यार।।

29- दुर्मिल सवैया
मापनी 112 112 112 112,
112 112 112 112

जिस गेह विवाद न होत कभी, उस गेह सदा प्रभु जी रहते।
जिस गेहन भाइन प्रेम रहे,उस गेह में राम सदा बसते।
जिस जेहन भेद नहीं उपजे, उस देहन देव रमा करते।
जिस प्रेमन सत्य प्रिया रहती,उस प्रेमन कृष्ण सदा दिखते।

जिस ओर दिखे सुख-शांति सदा, बनता हरिधाम विशाल वहाँ।
मन में जिसके अति पुण्य प्रभा,बनता प्रिय मंदिर राम तहाँ।
भववंधन से अनुराग नहीं, वह मानस आज विलुप्त यहाँ ।
चल खोज करो शिव मानव का,अति मानव रूपक भाव जहाँ।

मनमस्त रखो शिवराम भजो, रघुनायक धाम चला करना।
वचनामृत घोल रसायन पान, शिवालय नित्य रचा करना।
करना नित त्याग कुपोषण का, शुभ चिंतन अन्न लिया करना।
रहना अति व्यापक रूप धरे, मत भोग-कुपंथ कभी चलना।

30- मदिरा सवैया

मापनी 211 211 211 211,
211 211 211 2

साथ न छोड़ रहो नित पास,सदा सुखधाम बने रहना।
मित्र वही नित संग रहे, कर में कर डाल सदा चलना।
खार न राख कभी मितवा,अति प्रेमिल भाव सदा रखना।
तोड़ नहीं प्रिय वंधन को, प्रिय मानक ध्यान सदा रखना।

मित्र सु -नात सदा प्रियदा, सुखदा शुभदा अति दिव्य प्रभा।
मित्र बतावत राह सुगम्य, सुरम्य सुगन्ध अनन्त विभा।
मित्र बड़ा अनमोल रहस्य, अनन्य सुधाम महान सभा।
मित्र समान नहीं जग में, यह संपति देव समान शुभा।

मित्र अपार अथाह समुद्र, सदा मनभावन प्यार करे।
आदरणीय सदा प्रिय वाचन, द्वार खड़ा शिव रूप धरे।
मित्र सुमंत्र सदा हितसेवक,राय-सलाह सु-स्वच्छ भरे।
मित्र सु-पावन ब्रह्म समान, सदा सुखवादिनि राह चरे।।

31- आल्हा शैली
(मानववाद)
मात्रा भार 16/15

बन समाज का प्रिय सहभागी, रख मन में सहयोगी भाव।
बनो एकता का अनुरागी, दृश्यमान हो मधुर स्वभाव।
सींच सभी को प्रेम नीर से, रहे घृणा का सदा अभाव।
द्वेष भाव का बनो विरोधी, बनकर बहो पवन -सद्भाव।
मानव बनकर जीना सीखो, धोते रह दुखियों के घाव।
पीड़ित भव है बहुत डरावन, पार करो सब को बन नाव।
हरित वृक्ष बनकर छा जाओ, देना सबको अमृत छाँव
बन जाना तुम औषधि उनको, फटे हुए हैं जिनके पाँव।
दबे हुए को सदा सँवारो, देना उनको हार्दिक प्यार।
सतत जगाओ समतावादी, सुंदर नैतिक शिष्ट विचार।
जीवन आशापूर्ण सदा हो,फूँक निराशों में नित जान।
दिग्भ्रमितों को राह दिखाओ, देते रहना समुचित ज्ञान।
अग्रदूत की रहे भूमिका, चमत्कार का हो विस्तार।
सहज बनाओ उत्तम रचना, शुचिता का करना संचार।

32- मनहरण घनाक्षरी

वीर हनुमान बन,राम जी का भक्त बन,
लंक के विनाश हेतु, आगे-आगे चलिये।

राम जी का जप कर, साथ रह तप कर,
गदा ले कर हाथ में,राक्षसों को वधिये।

दुख को भगाते रह, सुख को दिलाते रह,
प्रेम को जगाते रह, राम-राम कहिये।

मन में विकार नहीं, अति भक्ति भाव सही,
प्रेम में मगन होय, खूब नृत्य करिये।

शुद्ध-शुद्ध बोल-बोल,घूम-घूम डोल-डोल,
आतमा को खोल-खोल,सत्य को बताइये।

प्रेम पंथ गढ़-गढ़, धीरे- धीरे बढ़-बढ़,
तुलसी का पाठ पढ़,खुद में समाइये।

33- आल्हा छंद
मात्रा भार 16/15

बहुत भाग्यशाली वह मानव,जिसके होती गीता पास।
सम्मानित होता वह जग में, दुनिया करती उससे आस।
योगमंत्र का वह पंडित है, सब बनते हैं उसके दास।
जो गीता को गले लगाता,उसका होता सदा विकास।
गीता को ही प्राण समझना,इसका करना नित अभ्यास।
भाग्योदय होता गीता से,सिर्फ लगे गीता की प्यास।
भूख लगे जब कुछ खाने की, पा गीता को करो प्रयास।
गीता जिसके घर में रहती, वहाँ देवता का है वास।
जो गीता का पूजन करता,समता का है वहाँ निवास।
जिसको गीता प्यारी लगती,उस पर दुनिया का विश्वास।
गीता का ही वन्दन करना, गीता में ही लेना श्वांस।
गीता योगी का है भावन,नित करना इसमें सहवास।

34- मनहरण घनाक्षरी

जब हनुमान लड़े, असुर जमीन पड़े;
वीर बलवीर जी की, जय जय करिये।

राम जी का हनुमान,करते सदा हैं ध्यान;
राम को ही रात-दिन,मेरे प्यारे भजिये।

जप तप व्रत कर,संयम से काम कर;
सबका खयाल कर,मनहर रहिये।

कभी न निराश होना, आस न विश्वास खोना;
मन में प्रसन्नता का,सदा बीज बोइये।

राम का ही जाप कर, त्याग का प्रचार कर;
दिव्य भावना पवित्र, सा सदैव बहिये।

लोक का विकास कर,अपना उद्धार कर;
पर-उपकार कर, आगे-आगे चलिये।

निजता को छोड़ कर, सम गठजोड़ कर;
सुंदरम की नींव से, स्वर्ग को बनाइये।

भक्तिभाव जागरण, प्रेम हो उदाहरण;
ज्ञान का प्रकाश बन, विश्व नहलाइये।

शुभमय संकल्पना, पावनी मधु भावना;
लोक में परलोक का,दर्शन कराइये।

35- जनहरण घनाक्षरी

सर सर सर सर, सरकत सर सर;
भरभर भरभर, भगत समय है।

रहत न थिर तन, चलत रहत नित;
जगत लखत वह, दिखत समय है।

चलत रहत वह, बहत रहत निज;
क्षण क्षण प्रति पल, बल अतिशय है।

प्रभुमय सुधि-बुधि,सुख-दुख द्वय सम;
नटवर जिमि मन, लगत समय है।

विधिक नियम पर, करत सकल कर्म;
मंदमति कुंदबुद्धि, लखत न लय है।

समय सफल अति, समय विफल कल;
समय सचल दल, सबक समय है।

36- मनहरण घनाक्षरी

सबक सदैव सीख,चल घूम -फिर नित।
कण-कण महकत,देत प्रिय ज्ञान है।

कभी न संकोच कर, लेते-देते रह नित।
लेने-देने से ही सदा, बढ़ता सम्मान है।

देना सीखो पाओ प्रिय, अच्छा-अच्छा गढ़ नित।
अति सच्चे भावों से ही, बनता सुजान है।

रख मधु भाव शिव,चल हित-न्याय पथ।
कपटविहीन जन,जान-मेहमान है।

कर न गलत काम, बन सब का सहाय।
अपना सुधार कर, यह बड़ ध्यान है।

यही नित्य काम कर, दर्प को कुचल चल।
दुश्मन बन है खड़ा, गन्दा अभिमान है।

सीखो-सीखो जगती से, पढ़ो-पढ़ो धरती से।
गढ़-गढ़ अपने को, यही आत्मज्ञान है।

37- डमरू घनाक्षरी
मात्रारहित 8 8 8 8 वर्ण

चल शिवपथ पर, परहित कर कर;
कदम-कदम पर, धरम पथिक बन।

तन मन धन बल, सकल परसपर:
जनहितकर कर, चल शिवमय सन।

करम प्रबल कर, हरण करहु दुख;
शरम त्यजन कर, बन शुभ प्रिय जन।

वचन रचन कर, अति प्रिय मनहर;
सजल नयन कर, करुण करहु मन।

सरस सलिल बन, बहत चलत रह;
गगन अमित बन, दिख मह मधुवन।

अमर सुघर घन,बरस बरस नित;
शबद मधुर कह, रच सम मधु ध्वन।

38- जलहरण घनाक्षरी
8 8 8 8 कुल 32 वर्ण
16 ,16 पर यति अनिवार्य
कुल 4 चरण, अंत लघु-लघु से

चमचम चमकत, चलत चपल चित;
खोज लेत सपने में, अपना सुघर घर।

कोई बात करे या न, करे कोई फर्क नहीं;
चपला के चेहरे से, बहता है मधु सर।

मह मह महकत,दुनिया को खींच लेत;
चंचला के गोरे गाल, चूम रहा मधुकर।

चह चह चहकत,फुदकत यत्र -तत्र ;
पंछी बन विचरत,सुगनी गगन भर।

लखत चलत अति, प्रेमपूर्ण भाव बन;
मोह लेत जगती को,निज अंक भर कर।

चित्त का विराट रूप, प्रेम का अथाह सिंधु ;
कोमलांग सुंदरम, उदार भावना सुघर।

39- देव घनाक्षरी
वर्ण 8 8 8 9
16,17 पर यति
अंत 3 लघु से

नित्य ध्यान मग्न होय, पूजिये शिवाम्बुजम;
बखान हो गुणज्ञ का,नमामि राम उत्तमम।

सुखांत होय जिंदगी, नष्ट काम-क्रोध-तम;
करो गणेश वंदना,कटे कलेश दुष्करम।

आधि-व्याधि सब मिटे, रहे निरोग तन-मना;
सत्व बुद्धि जागरण, विवेक भाव सुंदरम।

सर्वदा तिमिर मिटे,प्रकाश ही प्रकाश हो;
प्रकोप सारे लुप्त हों, प्रशांत विश्व निर्मलम।

शोभायमान चंद्रमा,सदैव शुक्ल पक्ष हो;
दिवा में प्रेम शीतला, मनोविकार नाशनम।

विशिष्टता के भाव में, स्वभाव की सुगन्ध हो;
सहानुभूति प्रेमदा, दिखे सदैव दिव्यतम।

40- सरस्वती घनाक्षरी
(डॉ०रामबली मिश्र विरचित)
वर्ण 8 9 8 9
17 ,17 पर यति
अंत तीन लघु

सरस्वती माँ शारदा, सदा कृपा करो मधुर;
दया करो माँ शारदे, हरो कलेश द्रुत सगर।

नित्य रोग लुप्त कर,अशान्त को प्रशांत कर;
ज्ञान-बुद्धि दान कर, अयोग्य को सुयोग्य कर।

हंसवाहिनी विवेक,लेखनी अजर अमर;
मेट निंद्य सोच-तम, असत्य प्रश्न दूर कर।

वंदनीय माँ सतत, हरो जगत की व्याधियाँ;
ज्ञान का लालित्य रस, बनी दिखो परोस कर।

ज्ञान यज्ञ दीपमय,निवेदनम स्वीकार हो;
सत्यता की नींव पर, संसार का विस्तार कर।

41- मदिरा सवैया

होय सपूत अगर घर में,सुख-शांति वहाँ नित आवत है।
गावत ढोल-मजीर लिये, प्रभु चेतन रूप दिखावत है।
मात-पिता खुश हों अनुदिन, प्रिय पूत सुमङ्गल गावत है।
बीतत रैन-दिवा सुख से, घर में मनरंजन आवत है।

बुद्धिविनायक नित्य खड़े,सब में अति हर्ष जगावत हैं।
होंय वृहस्पति ज्ञान निधान,सदा परिवार सजावत हैं।
आँगन भाग्य निवास करे,धनदेवि सदा चल आवत हैं।
विष्णु निवास किया करते,प्रिय पूत जहाँ मनभावत हैं।

42- चौपाई

राम नाम भजते चलना है।
प्यार सदा करते रहना है।
मन में रहे नहीं कुटिलाई।
दिल की करते रहो धुलाई।।

प्यार रत्न को नित्य चाहना।
इसे गले में सदा बाँधना।।
नहीं निकालो कभी न फेंको।
नित्य प्रेम की रोटी सेंको।।

अमर प्यार की करो कवायद।
बन जाओगे कृष्ण नामजद।।
सीता प्रियतम राम बनोगे।
राधा के घनश्याम बनोगे।।

परम पवित्र प्यार स्थापित हो।
उत्तम मन नित व्याख्यायित हो।।
मन को निर्मल करते रहना।
शुचि भावों में बहते रहना।।

शुद्ध प्यार की मधुरिम काया।
लौकिक तन है झूठी माया।।
देव समान रूप है इसका।
मधुर प्रसाद प्यार है प्रभु का।।

43- सुंदरी सवैया
मापनी 112 112 112 112
112 112 112 1122

पद से धन से व्यवहार बड़ा, व्यवहार बिना सब व्यर्थ यहाँ है।
व्यवहार सदा करना बढिया, व्यवहार हि पूजित होत यहाँ है।
सबके प्रति उत्तम भाव रखो, अति सुंदर भाव-विचार महा है।
जिसके उर में सबके प्रति नेह,मनुष्य महान कहाँ जग में है?

जिसके दिल में अनुराग भरा, वह दिव्य महान सुजान बड़ा है।
चलता सबके हित हेतु सदा, प्रिय धर्मधुरंधर जान बड़ा है।
अति मोहक कर्म किया करता, सबके मन का प्रिय मान खड़ा है।
करता जग वन्दन नित्य लिये, कर में ध्वज -प्रेम पताक पड़ा है।

करता न विवाद सदा रस शांति, पिलावत मानव भव्य चला है।
कहता सबसे प्रिय पात्र बनो, यह जीवन पद्धति पूर्ण कला है।
मत भेद रखो मतभेद हटे, हर भेद कुपंथ कुचाल बला है।
जिसमें नहिं दर्प घमण्ड नहीं, उसका हर संकट नित्य टला है।

शुभ भाव भरो अपने मन में, प्रिय चिंतन का शिव तंत्र बनाओ।
जपते चलना हरि मूरत को, सबको प्रिय नेक सुमंत्र सिखाओ।
जगते रहना अपने जग में, अपने उर में सुख-तंत्र रचाओ।
व्यवहार रहे सुखदा सबके, प्रति जीवन सौम्य स्वतंत्र कराओ।

44- दुर्मिल सवैया

करना मुझको तुम माफ सखे, यह भावुक मीत दुखी रहता।
विनती करता सुन लो इस की, कर जोड़ निवेदन ये कहता।
इसकी गलती पर ध्यान न दो,इसका दिल कोमल है मरता।
मन का यह साफ सदा सुथरा, प्रिय मीत सुमान सदा करता।

इसके दिल को मत तोड़ कभी, इस का मन शांत सदा करना।
मत भंग करो इस के मन को, इसको अति रक्षित ही रखना।
यह घोर निराश हताश बहुत, इस को नित ढाढ़स दे चलना।
इस की सुनना गुनना इस पर, इस से प्रतिवाद नही करना।

तुम एक महान सुजान सखे, यह पागल मीत जुदा रहता।
तुम देव समान अतुल्य निधान, यह मूर्ख अजान सदा दिखता।
तुम प्रेममयी बदरी जग में, यह निष्ठुर क्रूर बना चलता।
तुम होय कृपालु बनो प्रियतम, यह मंद अधीर भ्रमित लगता।

45- सरस्वती घनाक्षरी
वर्ण 8 9 8 9
17/17 पर यति
अंत 3 लघु

धीर-वीर बन बढ़ो, अधीरता को त्याग कर;
प्रासाद नित्य गाड़ दो,सुधीरता की नींव पर।

शंखनाद नित्य कर, अकर्म भाव त्यागकर;
चलो बढ़ो परिश्रमी, सुकर्म को सकार कर।

सत्यव्रत रखो सदा, सुसत्यता का जाप कर;
सत्य राह नित्य गह,सदैव सत्य बोल कर।

सदा डरो कुकर्म से, कुकर्म ही विनाश घर;
सत्य कर्मनिष्ठ हो, चलो सुपंथ मित्रवर।

प्रेम मार्ग नित्य गह, नहीं किसी से द्वेष कर;
इस पवित्र पन्थ को, गहो सदा विचार कर।

46- सरस्वती वंदना

दोहा-गीता पुस्तक कर गहे, देत कर्म उपदेश।
माँ सरस्वती शारदा, रहत ज्ञान के देश।।

चौपाई-

गीतामृत रस माँ बरसाती।सब के मन को दिव्य बनाती।।
तात्विक सात्विक तार्किक सत्या।नीति नियंता नियमित नित्या।।
पांडव संस्कृति नित रचती हो।त्यागमयी विद्या लगती हो।।
डेरा सुंदरता का तुम हो।अति नैतिक मानवता तुम हो।।
यहाँ वहाँ सब जगह तुम्हीं हो।हर कण व्यापिनि सर्व तुम्हीं हो।।
जीवन को खुशियों से भर माँ।हंसवाहिनी! दो शुभ घर माँ।।

दोहा-कर्मयोग का ज्ञान दे,कर जग का उद्धार।
वीणापाणी माँ सदा, करो यही उपकार।।

47- मुक्तहरा सवैया
मापनी 121 121 121 121
121 121 121 121

कमाल किया करता वह मानुष,जो रखता अति सुंदर ख्याल।
सुबाहु बना चलता जग में,प्रिय रक्षक सा दिखता जगपाल।
मलाल नहीं रखता मन में, उर में उसके पड़ता जयमाल।
सुमोहक भाव लिये चलता, बनता सब का शिव सा रखवाल ।

जहाँ कलिकाल वहीं अति पाप, मनुष्य भयानक रूप दिखाय ।
जहाँ कुप्रवृत्ति वहीं अति दुर्गम,काल कुचक्र डरावन धाय।
जहाँ प्रिय मानव वास नहीं,विष वेलि वहीं कलि कर्म जमाय।
असुंदर वेश धरे बहु दानव, धर्म विरोध अनीति सहाय।

48- सुमुखी सवैया
मापनी-
121 121 121 121,121 121 121 12 (23 वर्ण)

विश्राम करो उस धाम जहान जहाँ प्रभु राम कभी ठहरे।
प्रणम्य वही प्रिय आश्रम पावन धन्य सदेह सुवास भरे।
सुधारत जीवन की बगिया प्रिय राम विराजत शांत हरे।
दसानन को ललकारत जो वह राम -सुधाम अनंत परे।

अनाथन के प्रिय राम महान सदा दुख अंत किया करते।
निकाय अनंत बने चलते सबका हितसाधक सा रहते।
मनोरथ पूर किया करते सबकी सुनते गुनते चलते।
निहारत हैं सबको नित देत प्रसाद सुभक्ति सप्रेम मते।

49- वाम सवैया
मापनी-
121 121 121 121,121 121 121 122

बहार बने नित नूतन हो चलते रहना सब को सुख देना।
अवश्य करो अति उत्तम कृत्य निसर्ग बने दुख को हर लेना।
सनातन भाव अमर्त्य बने विषयी रस त्याग अमी रस देना।
सुहाग-स्वभाव बने सब के कर चूम सदा अपना कर देना।

कुशासन दुष्ट अपावन को अविलम्ब उखाड़ खड़ा नित फेंको।
कुशासन मानववाद नहीं इस का अरि मस्तक काटत फेंको।
सदा यह चोर बना चलता इस को पटको झटको नित फेंको।
कुदृष्टि कुवृत्ति कुकर्म कुभाग्य कुचाल कुदृश्य कथानक फेंको।

50- दुर्मिल सवैया
मापनी-
112 112 112 112,
112 112 112 112

हरिराम कहो हरिनाथ कहो शिवनाथ कहो रघुनंदन को।
प्रिय धाम वही रचते रहते तुम देख सदा प्रिय नंदन को।
अति शांत विनम्र दयालु हरी भजते रहना सुखनंदन को।
हरि विष्णु स्वरूप सदा दिखते रह राम रमापति वन्दन को।

रह राम दुआर नहीं भटको प्रभु राम सदा शरणालय हैं।
शिव जाप किया करते रघुराम लगा नित ध्यान शिवालय हैं।
करते नित त्याग समर्थन हैं रहते दिखते करुणालय हैं।
वसुधाय समर्पित राम अनन्य रचा करते वरुणालय हैं।

51- डमरू घनाक्षरी
मापनी – मात्रा मुक्त 8 8 8 8
चार चरण

चम चम चम चम, चमकत चल चल।
धम धम धम धम , कहत बढ़त पल।
चह चह चहकत,चलत सतत कल।
सहज सतह पर,भगत जलद जल।

सहकत बहकत, चलत चपल मन।
कहत बढ़त वह, लगत निकट जन।
थिर थिर थिरकत,चलत सकल तन।
सुनयनि सुमधुर, अधर दिखत बन।

52- कुंडली

समता जीवन मूल्य का,जो करता सम्मान।
वही अलौकिक दिव्य मन, रचता सुखद विधान।।
कहें मिसिर कविराय, रखो सबके प्रति ममता।
कर समाज का मान, मनुज बन लाओ समता।।

समता समतल भूमि सम, भेदभाव से मुक्त।
यही स्वर्ग सोपान है, दिखता जग संयुक्त।।
कहें मिसिर कविराय, दूब पत्थर पर जमता।
ऊसर को हरियार, सदा करती है समता।।

समता में विश्वास का, फल अति मीठा होत।
समतामूलक भाव ही, सभ्य लोक का स्रोत।।
कहें मिसिर कविराय, करो स्थापित मानवता।
बनो सभ्य इंसान, लगे मनमोहक समता।।

समता का पालन करो, बन संवेदनशील।
आर-पार इस हृदय के, बसें साधु प्रिय शील।।
कहें मिसिर कविराय, वही तरुवर सा जमता।
शीतल छाया देत,प्रेमिका जिसकी समता।।

समता को ही पूजता, कोमल मृदुल स्वभाव।
संतों जैसा विचरता, धोता सबके घाव।।
कहें मिसिर कविराय, इत्र सा वही गमकता।
जिसे मनुज से प्यार,और उर में है समता।।

53- डॉक्टर रामबली मिश्र की कुंडली

हेरत -हेरत युग गया, मिला न मन का मीत।
अंत:पुर में है छिपा, मीत लिखत शिव गीत।।
कहें मिश्र कविराय, बसो अपने उर टेरत।
मिल जायेगा मीत, चलो अंतस में हेरत।।

मिलता मोहक मीत है, यदि सच्चा हो प्यार।
सच्चाई की राह का, अंत प्यार का द्वार।।
कहें मिश्र कविराय, जहाँ पावन उर खिलता।
वहीं खड़ा है मीत, सहज ही आकर मिलता ।।

मानवता की गोद में, पला-बढ़ा इंसान।
माता के आशीष से, बनता दिव्य महान।।
कहें मिश्र कविराय, त्याग दूषित दानवता।
प्राणि मात्र से प्रेम,करो लाओ मानवता।।

जिसने समझा प्यार को, वही पहन परिधान।
आजीवन करता सतत, मानव का सम्मान।।
कहें मिश्र कविराय, ओढ़ ली चादर उसने।
प्रेम रत्न को बाँट, बिताया जीवन जिसने।।

जिसके दिल में प्यार है, वह रत्नों का गेह।
चलता रत्नाकर बना, देत रत्नमय स्नेह।।
कहें मिश्र कविराय,रहो घर जा कर उसके।
सबके प्रति सुविचार, समाया मन में जिसके।।

54- सरसी छंद
(दीपावली महोत्सव)
सम चरण तुकांत
मात्रा भार 16/11
16,11 पर यति

दीपावली दीप की माला, परम मनोहर दृश्य।
मोहित बहुत जगत सारा है,दीप दान प्रिय स्पृश्य।।

दीप शिखा अति पावन मोहक, खुश होते सब सन्त।
दीप महोत्सव पर्व लुभावन,नहीं आदि नहिं अंत।।

दिल से दिल को यही जोड़ती, दीपावली महान।
लक्ष्मी वैभव ले कर आता,पर्व विश्व की जान।।

सारा जगत प्रकाशित करता,यही ज्ञान का गेह।
तिमिर मिटाता चलता रहता, छिपा पर्व में स्नेह।।

दिव्य ज्योतिमा का यह आलय,अति मनभावन पर्व।
ज्ञानामृत रस देता निश्चित, विश्व पर्व नित सर्व।।

मंद बुद्धि को सहज रौंदता, ज्ञानशिखामय दीप।
कलुषित भावों का यह मारक, यह त्योहार महीप।।

मन में हर्षोल्लास सुहावन, जलता दीपक देख।
दिल दरिया में प्रेम उमड़ता,दिव्य दृष्टि की रेख।।

विजय पताका यह लहराता, फहराता आकाश।
दूषित क्षितिज सदा धूमिल है,पावन क्षितिज प्रकाश।।

नयन ज्योति को विकसित करता, दीप यज्ञ मधु दान।
शांत पथिक सा दिखता चलता, दीप पर्व प्रिय मान।।

लक्ष्मी धन्वंतरि यम देवा, सब की पूजा होत।
देवालय धरती पर आता,देवमंत्र का स्रोत।।

मंत्रों का जप चलता रहता, सभी जगाते मंत्र।
रिद्धि-सिद्धियाँ आ कर रहतीं, दिखत ब्रह्म का तंत्र।।

अन्त:चक्षु प्रज्वलित होता, अन्तर्दृष्टि अपार।
अंतस सहज प्रकाश पुंज बन, करत सतत उजियार।।

55- डमरू घनाक्षरी
8 8 8 8
सभी लघु वर्ण

मिलत नयन द्वय, निकट बहत मन;
चलत मदन सर, लहर-लहर तन।

वदन वदन गह, कस कस कस कर;
रग -रग फड़कत,तन-मन जमकर।

मनमथ मनसिज, चलत रहत उर ;
बढ़त रहत कद, पकड़-पकड़ कर।

सरकत सर सर, लहरत धर धर;
फरकत फर फर,घहरत झर झर।

चहकत चह चह,गमकत गम गम;
महकत मह मह, निखरत शबनम।

फिसलत क्रमशः, निरखत क्रमशः ;
कर पर क्रमशः, कर तल क्रमशः।

पटक पटक कर, लिपट लिपट कर;
रगड़ रगड़ कर, सिमट सिमट कर।

चहल पहल कर, खिलत मदन तन;
भर भर नयनन, दिखत रटत मन।

56- आल्हा छंद
मात्रा भार 16/15

जीवन में दीवाली लाओ,
सब से करते जा संवाद।
सब से नाता नित्य जोड़ना,
अपने मन को कर आजाद।
हितकर कहना उपकृत होना,
जगती को करना आबाद।
धर्म नियम का पालन करना,
दिखे धरा पर मानववाद।
नैतिकता की फसल उगे अब,
पारदर्शिता हो शिववाद।
सत्य-अहिंसा-प्रेम निराला,
लाये जग में उत्तमवाद।
शंकर के डमरू की ध्वनि हो,
सहज दिखे रामेश्वरवाद।
शंखनाद हम सुनें प्यार का,
सहयोगी प्रवृत्ति सुखवाद।
सच्चे इंसानों का मेला,
मधु भावों की बहु तादाद।
विनयशीलता की छाया में,
जागे मन में प्रिय मधुवाद।
सच्चरित्र का जय जयकारा,
पावन मानव जिन्दावाद।
कण-कण में खुशियाँ छा जायें,
दिल में उतरे आत्मावाद।

57- प्रेमाधारित चतुष्पदी

तुझ को ढूढ़ रहा मन कब से।
यह मन पूछ रहा है सब से।।
चलते-चलते थका बेचारा।
फिर भी अति उत्साहित मन से।।

मन में इसके एक तुम्हीं हो।
प्रातिभ मनहर रूप तुम्हीं हो।।
कसम खुदा की अति व्यकुल यह।
इसका पावन लक्ष्य तुम्हीं हो।।

अति निरीह है बिना तुम्हारे।
मरा जान यह बिना सहारे।।
तुम्हीं सिर्फ रक्षक बन सकते।
तुम्हीं परम मधु प्राण पियारे।।

लुका-छिपी मत अब तुम करना।
इस से नहीं ईश से डरना।।
रहम करो इस दीन-हीन पर।
अपने संरक्षण में रखना।।

खोज रहा मन जगह-जगह पर।
नहीं कहीं से शुभमय उत्तर।।
खग-मृग-मधुकर से यह पूछत।
क्षीण काय हो गया निरुत्तर।।

जंगल-जंगल भटकत यह मन।
नदी किनारे घूमत यह तन।।
क्यों तुम नहीं दिखायी पड़ते?
आ प्यारे!अब करो आगमन।।

कृपा करो अब मेरे अनुपम।
दिल के मालिक हे प्रिय उत्तम।
जीर्ण-शीर्ण को नवल बना दो।
हे मेरे प्रियवर सर्वोत्तम।।

58- जनहरण घनाक्षरी
31 वर्ण,30 लघु, अंतिम दीर्घ
मापनी 8 8 8 7

सहचर बनकर, पद पर चलकर;
सुनकर सबकर, हरदम रहना।

नियमित रहकर, सब कुछ सह कर;
घुल कर मिल कर, मनहर बनना।

हितकर रसमय, मधुवर प्रियवर;
सियवर रघुवर, सम नित दिखना।

लिखकर हँस कर, अति प्रिय रच कर;
सुख-दुख तज कर, मधुवन चलना।

स्वर-लय प्रियतम, शुभ मन अनुपम;
तन-धन शिवमय, अज-अम करना।

59- डॉ०रमबली मिश्र की कुंडली
एक दोहा और एक रोला का मिश्रण।
रोला का प्रथम चरण “कहें मिश्र कविराय” से प्रारम्भ है।

जीवन को उन्नत करो, परहित का रख ख्याल।
परहितवादी भाव का, है सर्वोत्तम हाल।।
कहें मिश्र कविराय, बने जग मोहक उपवन।
सब का करो विकास, यही है दैविक जीवन।।

जीवन सादा सरल का, करते रहो विकास।
साधारण परिधान में, करते रहो निवास।।
कहें मिश्र कविराय, छोड़ सब रह वृंदावन।
करो कृष्ण से प्रेम,सहज हो सारा जीवन।।

जीवन सबको सौंप कर, बन जग का प्रिय भक्त।
सहज त्यागमय भाव के, प्रति नित रह अनुरक्त।।
कहें मिश्र कविराय, समर्पण ही उत्तम धन।
सबके प्रति अनुराग,धन्य करता है जीवन।।

जीवन प्रिय अनमोल को, नहीं गवाओ व्यर्थ।
जीवन को क्षतिग्रस्त कर, मत कर कभी अनर्थ।।
कहें मिश्र कविराय, बने कल्याणी तन-मन।
अजर-अमर इतिहास, बने यह सारा जीवन।।

60- तामस काया (सजल)

तम प्रधान है जैविक काया।
घेर चुकी है इसको माया ।।

चंगुल में यह फँसी हुई है।
पिंड छोड़ती कभी न माया।।

विषय -वासना इसे सताती।
इसे देख कर लगती दाया।।

सूकर जैसा यही दौड़ती।
प्रभु की पाती कभी न छाया।।

उदर भरण कर घूमा करती।
पर अतृप्त यह लौकिक काया।।

भटक रही है आदि काल से।
पशुवत इन्द्रिय झूठी काया।।

परेशान यह सदा रहेगी।
रचा ब्रह्म ने दूषित काया।।

थकती फिर भी भागा करती।
अतिशय व्यकुल विषयी काया।।

भोग-रोग से सहज ग्रस्त यह।
इसकी पीछा करती माया।।

माया के बंधन में जकड़ी।
रोती -चिल्लाती है काया।।

जिसने काया गले लगाया।
उसे रुलाती गन्दी माया।।

जिसने काया को समझा है।
वह बौद्धिक-आत्मिक कहलाया।।

जिसे सत्व से सहज प्रेम है।
उसने ईश्वर को अपनाया।।

जो ईश्वर का भजनानंदी।
उसकी क्या कर सकती माया??

जिसे स्नेह है जीव मात्र से।
उसके पद तल रहती काया।।

आत्मा की काया पहचानो।
रहो इसी में फेंको माया।।

जो ईश्वर के संग विचरता।
ब्रह्म सरूप वही बन पाया।।

ब्रह्म क्षेत्र में पावन गंगा।
जो भी आया गंग नहाया।।

काया-माया मोह भंग तब।
जब लौटा मन उर में आया।।

करता पावन मंत्र जाप जो।
उसको सत-शिव-सुंदर भाया।।

61- डमरू घनाक्षरी
8 8 8 8
सभी लघु वर्ण

उड़त चपल मन,छुअत सकल जन;
कहत वचन मृदु, रहत मगन तन।

बहकत बहकत, बहकत मन तन;
चलत चतुर बन, पर फिसलत मन।

फँसत-फँसत तन, बच न सकत वह;
भगत-फिरत पर, पकड़ शिथिल पड़।

डरत रहत नित, दहल-दहल रह;
गिरत -परत चल, मन नहिं चह-चह।

कहत मिसिर अब, सुनहु मनुज जन;
कबहुँ बहक मत, चल बन प्रिय जन।

62- मनहरण घनाक्षरी

बनिये सुजान सत्य
गहिये सुपंथ नित्य,
रचिये विधान शिव
राम राम बोलिये।

कहिये असत्य नहीं
होइये सुशांत सही,
प्यार ध्वज लिए सदा
प्रेम मग्न होइये।

रहो सदा प्रसन्नना
दिव्यमय हो साधना,
भेद की दीवार तोड़
प्रीति भाव घोलिये।

विश्व परिवार बने
मित्रता में मन सने,
मधुर सुखान्त देख
ज्ञान बीज बोइये।

मुनियों का नाद होय
बुद्धि हंसनाद होय,
सरस्वती बसें सदा
प्रेम वाक्य खोजिये।

63- जनहरण घनाक्षरी
31 वर्ण ( 30 लघु, अंतिम गुरु)
8 8 8 7(16/15 पर यति)

बहकत सहकत बिहँसत खिलकत,
चलत मदन रथ हर दिशि दिखता।

घुमत रहत हर दिशि निशि हरदम,
रचत सघन वन प्रति पल चलता।

मुखरित तन मन चपल नयन अति,
गगन लगत प्रिय मधुमय सरिता।

सजल रजत जिमि सुघर बनत खुद,
रटत रहत नित सुखमय वनिता।

रुचिकर प्रियकर चहत सदन मन,
वदन लिपट कर सब कुछ करता।

सुभग सजन बन थिरक थिरक कर,
मचलत हर क्षण खुल कर रहता।

छल बल कल सब जुगुति करत वह,
नरपति बनकर सतत विचरता।

प्रियवर सबकर बनकर चलकर,
उठ उठ भुज दल सबल निगलता।

बलकत उबलत मथ मथ बह बह,
गिरत परत वह पग पग धरता।

64- मनहरण घनाक्षरी
31 वर्ण, अंत में दीर्घ
8 8 8 7,16/15 पर यति

दुश्मनों को तोड़ कर
वक्ष को मरोड़ कर,
सिंह जिमि दहाड़ से
नीच को पछाड़िये।

डटे रहो बढ़े चलो
लक्ष्य पर सटे रहो,
वीर ध्वज को साथ ले
दुष्ट को गिराइये।

मातृ -भूमि निर्विवाद
दुश्मनों से हो विवाद,
देश की स्वतंत्रता में
राष्ट्र गीत गाइये।

राष्ट्र का सम्मान कर
वीरता का गान कर,
दुश्मनों को कूच चल
देश को बचाइये।

राष्ट्र प्रेम जागरण
देश भक्ति व्याकरण,
स्वतंत्रता की गूँज को
विश्व को सुनाइये।

नाड़ियों में जोश बहे
वीरता का होश रहे,
भारतीय भूमि पूज
शीश को झुकाइये।

65- जनहरण घनाक्षरी
31 वर्ण (30 लघु, अंतिम अक्षर दीर्घ)
8 8 8 7(16/15 पर यति)

सबल प्रबल बन
नमन करत चल,
प्रियवर बनकर
जग हित करना ।

सब कर सुन कर
परहित गुन कर,
शिव जन मन बन
कर शुभ वचना।

हियतल मधुमय
मन-तल शिवमय,
सुखद मदन बन
नित जग रहना।

शबद मधुर कह
सहज सघन रह,
रचत शुभग जग
सुरभित करना।

दनुज न तुम बन
सुजन मनुज बन,
हरिहर जप कर
प्रमुदित रहना।

66- डॉक्टर रामबली मिश्र की कुंडली
(एक दोहा और एक रोला)

मानस में वैकुण्ठ को, स्थापित करत महान।
पावन दिव्य विचार में, सदा विष्णु भगवान।
कहें मिश्र कविराय, बहें ईश्वर ही नस-नस।
हो सर्वोत्तम गेह, सकल जगती का मानस।

प्यारा भारतवर्ष ही ,बने विश्व सम्राट।
भारतीय संस्कृति महा, व्यापक दिव्य विराट।।
कहें मिश्र कविराय, यही आँखों का तारा।
भारतीय शिव रूप, लोक में सबसे प्यारा।।

सुंदर सत्य स्वरूप है, भारत -विश्व अनन्त।
इसकी माटी गंध से, बनते राघव सन्त।।
कहें मिश्र कविराय,बने वह जग का प्रियवर।
जिसजे मूल्य-विचार, परम पावन अति सुंदर।।

गावत मोहक गीत जो, सबके मन को जीत।
मधुर मनोहर बोल से, बनता सबका मीत।।
कहें मिश्र कविराय, जगत को वह मन भावत।
जो रखता है स्नेह, प्रेम की गीता गावत।।

पावत है फल चार वह, जिसके उत्तम कर्म।
पावन हितकर कर्म को, जो समझे शिव धर्म।।
कहें मिश्र कविराय, मनुज शुभ सुनत सुनावत।
रहता चारों धाम, वही ईश्वर रस पावत।।

67- चौपई (मात्रा भार 15 )

रामचरण के प्रति अनुराग।
सुंदर भावों में ही जाग।।
रामचरित मानस का जाप।
सदा काटता सारे पाप।।

मात-पिता की आज्ञा मान।
उनको ईश्वर जैसा जान।।
नित्य करो उनका सम्मान।
यही एक सर्वोत्तम ज्ञान ।।

तुझको बनना है यदि राम।
करो दर्प का काम तमाम।।
त्याग कर्म में प्रति क्षण जाग।
देना केवल कुछ मत माँग।।

सत्य पथिक की पकड़ो राह।
रख उत्तम बनने की चाह।।
लेना नहीं किसी की आह।
सबसे करना प्रेम अथाह।

अमृत घट बनना स्वीकार।
मानवता को सदा पुकार।।
दानव को करना इंकार।
साधु-संत का रच संसार।।

मातम भागे आतम जाग।
कभी न बनना काला नाग।।
रसना पर अमृत का घोल।
मुख से निकले सुंदर बोल।।

68- सजल

प्रिय के लिये तरसती आँखें।
चारोंतरफ घूर कर झाँके।।

कहीं न दिखता प्रियतम प्यारा।
आँखें मार रही हैं फाँके ।।

कब होगा दीदार बता दो ?
रखना मत तुम कभी सता के।।

नहीं तरसने दो आँखों को।
दया करो नित इसे दिखा के।।

आँखों पर तरसो तुम प्रति पल।
इसे न मारो तुम तड़पा के।।

आँखों में तुम आँखें डालो।
चार आँख हो कटि लचका के।।

जीवन को अब सरस बनाओ।
तन-मन दान करो अब आ के।।

तृप्त करो आँखों का आँचल।
आँखों के आँसू टपका के।।

मत मायूस कभी होने दो।
घुलमिल जाओ गले लगा के।।

छोड़ राह में कभी न भागो।
साथ रहा कर हाथ मिला के।।

69- जनहरण घनाक्षरी
8 8 8 7 (30 लघु ,अंतिम वर्ण गुरु)
16 15 पर यति

चितवत तन कटि रसत मदन मन,
लखत लखत वह लपकत बढ़ के।

रहत रहत वह नयन घुमत नित,
सर सर सरकत लटकत चढ़ के।

नित नित निगलत उगलत कुछ नहिं,
फर फर फड़कत मारकट बन के।

जियत मरत क्षण प्रति क्षण चल कर,
बढ़त घटत पुनि बढ़ घट घट के।

बहुत रसिक मन सरसिज जल प्रिय,
रहत न जल बिन सरसिज मर के।

प्रथम विषय मन मनसिज बन कर,
चलत विकल बन दर दर भटके।

70- मनहरण घननाक्षरी
8 8 8 7 (कुल 31 वर्ण, अंतिम वर्ण दीर्घ)
16/15 पर यति

छात्र!तुम पढ़ो सदा अग्रदूत बन सदा,
देश की चुनौतियों को रासता दिखाइए।

वीरता की बात करो दुश्मनों को मार बढ़ो,
ज्ञान दीप ज्योति बनो राष्ट्र गीत गाइए।

आजाद रखो देश को भेंट चढ़ स्वदेश को,
सत्य पंथ हेतु प्यारे होलिका जलाइए।

ज्ञान की सुगंध बहे प्रीति का साम्राज्य रहे,
देश प्रेम के गले में मालिका चढ़ाइए।

शिवत्व को जगाइए प्रभुत्व को बढ़ाइए,
जागते रहो सदैव शक्ति को बढ़ाइए।

71- दुर्मिल सवैया
112 112 112 112
112 112 112 112

सहते रहना हर कष्ट सदा मत बोल कभी कुछ भी मुख से।
चलते रहना नित राह धरे गम पान किया करना सुख से।
डरते रहना दुख से न कभी मत व्यकुल हो दुख के रुख से।
मझधार उतार करे पतवार चलो बन धीर निकल दुख से।

इस जीवन सिंधु भयानक को अति संयम से नित पार करो।
मत क्रोध करो नहिं लोभ करो बस स्वारथ काम तमाम करो।
सहयोग विचार रहे दिल में सबके मन में शुभ काम भरो।
दुखभजन हो कर काम करो सब का दुखदर्द निवार करो।

72- कुंडली
(एक दोहा और एक रोला)

होता वह धनवान है, जो करता सम्मान।
सम्मानित सम्मान में, देखत है भगवान।।
कहें मिश्र कविराय,सदा जो खुद को बोता।
वही जगत में श्रेष्ठ,मनुज सब का प्रिय होता।।

साधत है जो स्वयं को, बनता वही महान।
कामी-विषयी कब हुआ, है सुंदर इंसान।
कहें मिश्र कविराय,किसी को कर मत आहत।
जीवन है संग्राम, चलाकर इस को साधत।।

अमृत पीने के लिए, करते जा संघर्ष।
भले कठिन हो सत्य पथ,पर स्वीकार सहर्ष।।
कहें मिश्र कविराय,चलो सीखो शिव-संस्कृत ।
करो दिव्य सत्कृत्य, सतत पीते रह अमृत।।

जाओ उसके अति निकट, जो सद्गुण की खान।
श्रद्धा से गुण ग्रहण कर,बनते रहो सुजान।।
कहें मिश्र कविराय, ज्ञान को खोजो पाओ।
रखना खोजी दृष्टि, खोजते चलते जाओ।

73- सरसी छंद
मात्रा भार 16/11

प्रेम नहीं जग में है विकता, यह है दिल का भाव।
वही प्रेम केवल है पाता, जिसका मधुर प्रभाव।।

सहज शिखर पर चढ़ कर देखो, जग की पाओ प्रीति।
प्यार पिलाता जगत है, यदि हो हितकर नीति।।

सबके प्रति रखना सद्भावन,मिले सभी का प्यार।
शुद्ध आचरण अति मनभावन, में मादक रसधार।।

वही जगत में सबसे प्यारा, जिसका मन निष्पाप।
वही जगत में अति प्रसन्न है,जिस पर दैवी छाप ।।

देव कृपा जिस पर रहती है, वह है दिव्य विभूति।
सत्कृत्यों को करनेवाला, पाता सब की प्रीति।।

कभी नहीं तुम सत्य नकारो, पा जाओ शिव ज्ञान।
ज्ञानी वही महान विश्व में, जिसे प्रेम का भान।।

74- सजल

प्रिय को दे कर सारा जीवन।
अति प्रसन्न होता है तन-मन।।

प्रिय बिन सारा जीवन दूभर।
प्रिय ही मोहक मादक उपवन।।

प्रिय का चेहरा सदा देखता।
प्रिय बिन लगता कभी नहीं मन।।

प्रिय ही मेरा जीवन साथी।
प्रिय ही असली दिव्य चमन।।

प्रिय की करता प्रति क्षण पूजा।
सदा प्रेम रस से अभिनंदन।।

जीवन में जो कुछ पाया है।
सब के पीछे प्रिय का वन्दन।।

प्रिय ही पावन अमृत घट है।
अमर हुआ है यह जीवन-वन।।

जन्म-जन्म का साथ पुरातन।
चला करेगा संग अद्यतन।।

प्रिय की छवि अंकित है हरदम।
प्रिय से आच्छादित सारा तन।।

प्रिय के रोम-रोम में रमता।
खुशियों का यह सारा जीवन।।

75- हरिहरपुरी के रोले

नफरत करना छोड़,प्रेम का ध्वज लहराओ।
घृणा बहुत बेकार,हृदय में प्रीति जगाओ।।

तिरस्कार का त्याग,सुभग मानव का लक्षण।
उत्तम जीवन हेतु,प्रेम का लेना शिक्षण।।

छोड़ो सकल कुचाल, चलो बन कर प्रिय मानव।
रचना नहीँ कुचक्र,कभी तुम बन कर दानव।।

दानवता का ग्रन्थ, कभी मत रचना मन में।
दूषित कर न समाज,रचो सुंदर घर तन में।।

प्रिय को मत फटकार, प्रेम को धारण करना।
प्रिय ही सच्चा मीत,हृदय में उस को रखना।।

प्रिय को केवल देख, देख कर कभी न भागो।
प्रिय के उर में बैठ,प्यार में प्रति क्षण जागो।।

ठुकराता जो प्यार,पाप का भागी बनता।।
केवल मलता हाथ,सिर्फ रोता ही रहता।।

इसीलिए सुन बात, प्यार को गले लगाओ।
कुटिलाई से दूर, खडा हो हृदय बसाओ।।

76- डॉ० रामबली मित्र की रोलियाँ
मात्रा भार 11/11
सम चरण तुकांत

अति सुंदर हैं वेद, वेदों के मधु वाक्य।
रसमय सच्चे मंत्र, पावन मंत्र अकाट्य।।

वेद ब्रह्म का रूप, मानव का निर्माण।
मानव के कल्याण, में वेदों का प्राण।।

वेदों का नित पाठ, करता मन को शुद्ध।
वेद शरण में गच्छ ,पाओ ज्ञान विशुद्ध।।

सर्वोपरि हैं वेद, वेदों का अभ्यास।
जीवन सफलीभूत,दिखता सतत विकास।।

कहा गया है वेद, ईश्वर का अवतार।
हृदय गेह में वेद, रख कर करना प्यार।।

हर अक्षर में ईश, हर अक्षर प्रिय सत्य।
यही ज्ञान-विज्ञान, कुछ भी नहीं असत्य।।

अति प्रिय पावन दिव्य, वेद ग्रन्थ शिव पंथ ।
यही स्वर्ग सोपान, सदा चढ़ाता ग्रंथ।।

77- चतुष्पदी

इक सुंदर सा योगी बनना,
प्रेमामृत सहयोगी बनना,
मन के मैलेपन को त्यागो,
परहित में उपयोगी बनना।

उत्तम मन का मस्ताना बन,
मानवता का दीवाना बन,
जनगणमन को खुश रख प्यारे,
प्रेमरतन सोलह आना बन।

लेना कर में कंचन प्याला,
पीते रहना स्नेहिल हाला,
साकी बन कर प्रेम बाँट चल,
जीवन बन जाये मधुशाला ।

बने मित्र नित जग में नाचो,
सदा बोलना प्रिय मधु साचो,
अति विनम्र अमृत रस बन कर,
दया-करुण-ममता को वाचो।

आओ प्यारे!मिलजुल गायें,
इस धरती को स्वर्ग बनायें,
हाथ जोड़ कर कपटरहित हो,
सब के मन में प्रीति जगायें।

78- मदिरा सवैया
मापनी 211 211 211 211
211 211 211 2

देखत मानस होत प्रसन्न सदा अति दिव्य महाजन को।
पुण्य-प्रताप यदा उगता मन पावत सिद्ध शिवासन को।
भोगत रोग अपावन है मिलता अति क्लेश दुशासन को।
मोह निशाचर जात सदा अति दूषित दारुण कानन को।

सुंदर भाव-विचार जहाँ वह गेह विदेह सदा लगता।
पावन मानस नित्य विशाल अनंत असीम सदा बनता।
निर्मल मानव के मन में अति शीतल तत्व सदा रमता।
सज्जन सन्त शिरोमणि सिद्ध सुजान सुशील सदा सजता।

79- मत्तगयंद/मालती सवैया
मापनी 211 211 211 211
211 211 211 22

प्यार किया पर छोड़ दिया बतला तुमने फिर प्यार किया क्यों?
प्यार नहीं यदि जानत हो तब प्यार अनर्थ किया करते क्यों?
प्यार मजाक नहीं समझो इसको हलका तुम हो कहते क्यों?
प्यार अनंत असीम महा इसका मधु नाद नहीं सुनते क्यों?

प्यार सदा भगवान स्वरूप इसे प्रिय कृष्ण सुसंस्कृति जानो।
है अनमोल अथाह समुद्र सदा लहरात सुदृश्य सुहानो ।
बाहु विशाल सदा शिव सा यह रम्य सुशोभित दिव्य महानो।
प्यार नहीं जिसके दिल में उसको उरदाहक दानव मानो।

80- डॉ०रामबली मिश्र की कुंडली

प्यार सिर्फ तुझसे हुआ, तुझसे ही बस प्यार।
प्यार मूर्ति अद्भुत चमक, अद्वितीय आकार।।
कहें मिश्र कविराय, मत छोड़ इसे मझधार।
दे कर इसका साथ,बस करना इससे प्यार।।

सुंदर मोहक रूप प्रिय, तन कंचन की खान।
अनुपम अवतारी अकथ, सदा प्यार में ध्यान।।
कहें मिश्र कविराय, परम मधु प्रीति समन्दर।
लिए अनत विस्तार, सिर्फ तुम सबसे सुंदर।।

स्नेहिल पावन धर्मरत, बड़भागी सुखधाम।
दिव्य मनोहर छवि सहज, सुरभित तेरा नाम।।
कहें मिश्र कविराय, तुम्हीं जगती में प्रेमिल।
दिखते बने बहार, सकल धरती पर स्नेहिल।।

आओ बस जाओ हृदय, भरो मधुर मुस्कान।
शीतल चंदन तरु तले, करें प्रेम का गान।।
कहें मिश्र कविराय,प्यार को खोजन जाओ।
निश्चित मिलता प्यार, संग लेकर घर आओ।।

राधा बनना कृष्ण बन, हो समता का भाव।
दोनों में दोनों छिपे, उभय प्रेम की नाव।।
कहें मिश्र कविराय, स्वयं को जिसने साधा।
वही बना है प्रेम, दिव्य कान्हा प्रिय राधा।।

81- अर्चनामृतम

अ से अभयदान है अर्चन
र से रामभक्ति है अर्चन
च से देता चैन है अर्चन
नम्र-विनम्र बनाता अर्चन।

यह अनित्य को सहज नकारत
रम्य भाव को सदा सकारत
चेतनशील बनाता अर्चन।
नफरत द्वेषभाव से अर्चन।

प्रति क्षण खोजत दिव्य अमरता
रथ पर बैठी सत्य सहजता
सदा चमकता चम-चम अर्चन
नियम नियामक अति प्रिय अर्चन।

अक्षर ब्रह्म स्वयं है अर्चन
रणक्षेत्र सत्य का वन्दन
चलता रहता पूजन करता
नायक अर्चन नित्य चहकता।

अर्थपूर्ण अति भावुक प्रियवर
रंग सप्त इव चमक धनुष-सर
चेतन करता हर मानव को
अर्चन मारत मन-दानव को।

अमरवेलि जिमि व्यापक अर्चन
रथारूढ़ हो प्रभु अभिनंदन
चमत्कार करता रहता है
निंदनीय से बच चलता है।

अस्तिमान का सहज पुजारी
रामचन्द्र जिमि शिष्टाचारी
चुन-चुन-चुन कर सन्त बनाता
अर्चन सत्य समर्पण लाता।

82- हरिहरपुरी के दोहे

परिचय स्थापित हो सदा, हो मोहक संवाद।
वार्तालाप चला करे, कभी न होय विवाद।।

इंतजार करना नहीं, कर खुद ही शुरुआत।
अमृत वाणी बोलना, मधुर वचन दिन-रात।।

जिसका परिचय विश्व से, वही सहज विख्यात।
एक अकेला चल रहा, पीछे है वारात।।

परिचय जिसका प्रेम से, वह मोहक इंसान।
सच्चे मन से खोज कर, प्रेम रूप भगवान।।

परिचय जिसका ज्ञान से, वही वृहस्पति भव्य।
श्रद्धा अरु विश्वास से, बन जाओ एकलव्य ।।

परिचय जिसका भक्ति से, वही भरत -प्रह्लाद।
मनमोहक परिचय सुखद, करत हंस का नाद।।

परिचय की कर लालसा, सुंदर परिचय खोज।
सुंदर परिचय में छिपा, पावन दिव्य सरोज।।

83- नशा

नशा चढ़े जब प्रेम का, बोलो मीठे बोल।
सच्चाई की राह धर, इधर-उधर मत डोल।।

धीरे-धीरे चल सतत, देना केवल सीख।
शिष्य बनो प्रिय शिष्ट बन,अति मनमोहक दीख।।

सहज समर्पण भाव से, मिलता सच्चा प्यार।
अपनी कमियाँ खोज बस, करो प्यार को पार।।

छोटा बनकर ही मनुज, पा सकता है प्यार।
दंभी मानव का नहीं, होता है सत्कार।।

बनो नशेड़ी प्रेम का, रखना दिल को साफ।
प्रेमी मानव को सदा, सात खून है माफ।।

लिपट-लिपट कर प्रेम से, छू लो सारा लोक।
सदा प्रेम के पटल पर,लिखना मोहक श्लोक।।

सदा चूम कर पटल को, करते रह गुणगान।
प्रेम बहुत हीरक हृदय, कोमल मृदुल सुजान।।

प्रेम नशीला तत्व का, कीमत समझो मीत।
इसको खा कर नित्य लिख, सुंदर दिल के गीत।।

प्रेम पेय का आचमन, करना बारंबार।
सकल वदन को तब मिले, सहज प्रीति रसधार।।

प्रेम नशे में चूर हो, कर मोहक संवाद।
झूम-झूम कर नृत्य कर, करना मधुर निनाद।।

झुक-झुक कर मदहोश हो, लूट प्रेम भण्डार।
रुनझुन-रुनझुन दिव्य स्वर, से भरना सीत्कार।।

84- किरीट सवैया
मापनी 211 211 211 211
211 211 211 211

प्यार रहे मन में अति पावन होय सुहावन दिव्य लुभावन।
मेघ बना बरसे यह रोज दिखे अति मोहक सुंदर सावन।
मानस शिष्ट बने हिय संग चले रचते प्रिय गोकुल गाँवन।
द्वापर दॄश्य दिखे चहुँओर सुसंस्कृति कृष्ण सुयोग सिखावन।

प्रेम बहे दिल में दरिया बन नीर चले जग प्यास मिटावत।
दिव्य तरंग उठत नद में चलती बढ़ती हर छोर मिलावत ।
प्रेम सिखावत ज्ञान सदा चलता यह गूढ़ रहस्य बतावत।
प्रेम नदी बहती न जहाँ वह भूमि मरुस्थल नित्य कहावत।

85- डमरू घनाक्षरी
मात्राहीन,कुल 32 वर्ण, सभी लघु
8 8 8 8

हरकत सुनत न,करत अपन मन;
चलत कहत खुद, सुन मत बढ़ बस।

फुदक-फुदक कर, चलत रहत वह;
सहकत बहकत, धरत सकल तन।

पहल करत वह, चतुर बहुत मन;
धड़ धड़ पकड़त, गिरत बढ़त पर।

कसरत कर कर, तन कर झुक कर;
मरकट इव वह, सरकत सर सर।

फर फर फड़कत, भड़कत भड़ भड़;
दिखत चपल अति, लड़त चलत नित।

खर खर खिसकत,बढ़त झुकत चल;
रग रग चहकत,गठित वदन जन।

चढ़ चढ़ पटकत, रुकत न इक क्षण;
समर सुघर तल, लगत बहुत प्रिय।

86- सरसी छंद (16/11)

जप तप करते चलते रहना, पाओ सुखद मुकाम।
आजीवन जो करत साधना, देखत प्रभु का धाम।।

विद्वानों का यह लक्षण है, करते नित स्वाध्याय।
पढ़ते लिखते चिंतन करते, करते खुद से न्याय।।

विकृत मन में विचरण करता, सदा पाप का भाव।
सुंदर उत्तम भाव जहाँ है,वहाँ प्रेम की नाव।।

मानवता की सेवा करना, हो जीवन का ध्येय।
जो सेवक बनकर जीता है, उसे ख्याति शुभ श्रेय।।

पावन चिंतन में बहती है, अमृत की रसधार।
मीठे मोहक मधुर वचन से, मिलता सच्चा प्यार।।

जो सबके प्रति जैसा सोचत, वैसा ही उपहार।
प्रेम करो सारी धरती से, बनो गले का हार।।

मानवता को कुचल न देना, मानव दिव्य महान।
पढ़ना नैतिक पाठ सदा शिव, बन जाओ विद्वान।।

झूठ सहारे कभी न चलना,करो नित्य सत्संग।
सत्य पंथ ही सबसे ऊँचा, यही अमिय का रंग।।

जिसने सच्चा प्यार किया है, वही हृदय का फूल।
मस्ताना दीवाना मोहक, कभी न बनता शूल।।

गंगा यमुना सरस्वती का, संगम बन हे मीत!
तीर्थ भूमि पावन निर्मल बन, लिखना मधुमय गीत।।

87- जनहरण घनाक्षरी
31 वर्ण,30 लघु, अंतिम वर्ण गुरु
8 8 8 7 (16/15 पर यति)

चमकत दमकत, सुघर चरित नित;
हृदय महत अति, महकत मधु है।

सत शिव कह कह, नियम धरम मग;
पर वह चल चल, हितकर प्रिय है।

कसक न मन कुछ, शुचि रुचिकर बन;
मदद करत वह, धरत डगर है।

दरश परस शुभ,सुलह करत सब;
समतल मन थिर, करत बढ़त है।

प्रिय समदरशन,अति प्रिय जन जन;
बढ़त प्रगति पथ,सहज चरित है।

निडर अभय बन, थिरकत चल कर;
छुअत गगन पथ,अटल चरित है।

88- डमरू घनाक्षरी
मात्राहीन,32 वर्ण,8 8 8 8 (16/16 पर यति)

सहत रहत दुख, रुदन करत मन;
लखत अगर सुख, हँसत चलत वह।

उठत न जब तक,सुख दुख सम कर;
मिलत न पथ प्रिय, हितकर रुचिकर।

ढलत वदन प्रति, क्षण प्रति पल नित;
शिथिल पड़त सब, कुछ सह सह कर।

समझत मन नहिं, सहज वचन यह।
जगत अमर नहिं, मरत जरत सब।

बहुत चपल मन, चितवत इत-उत;
चलत सुअर जिमि, मिलत न सुख फल।

छुटत जगत इक ,दिन मरघट बन;
पहल करत नहिं, मरन चहत मन।

विलखत तड़पत, रहत सतत मन;
मिलत न मधु फल,जियत मरत बस।

89- माँ की महिमा
(चौपाई)

सर्वोपरि है माँ की महिमा।
गगन शीर्ष पर माँ की गरिमा।।
उपमारहित दिव्य नाता यह।
जगत रचयिता विख्यात यह।।

माँ की ममता सब से ऊपर
माँ सर्वेश्वरि अनुपम सुंदर।।
माँ ब्रह्माणी आदि शक्ति है।
ज्ञान प्रदात्री प्रेम-भक्ति है।।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश यही है।
दुर्गा-काली वेश यही है।।
महा सरस्वति मोहक ज्ञाता।
गुणसम्पन्ना सभ्य सुजाता।।

सब रूपों में केवल माता।
सकल रसामृत योग विधाता।।
सृष्टि रचयिता पालनकर्त्ता।
गर्भधारिणी जननी भर्त्ता।।

संरक्षक बन रक्षा करती।
गुरु वरेण्य बन दीक्षा देती।।
सहज शिक्षिका बन कर चलती।
निर्देशक बन दिशा बदलती।।

दूध पिलाकर प्यास बुझाती।
अन्न खिला कर भूख मिटाती।।
शिशु पर ध्यान सदा रहता है।
माँ का स्नेहिल मन खिलता है।।

माँ बिन सृष्टि नहीं संभव है।
माँ से ही सारा वैभव है।।
माँ से संस्कृति की रचना है।
माँ सर्वोत्तम मधु वचना है।।

माँश्री का जो करता वंदन।
जग करता उसका अभिनंदन।।
माँ को जो अपमानित करता।
नरक कूप में निश्चित गिरता।।

माँ ही धरती माँ ही गगना ।
माँ से शोभित सारा अँगना।।
माताश्री ही सृष्टि नाद है।
माता से ही प्रकृतिवाद है।।

परम दिव्य प्रिय प्रकृति कुमारी।
महा शक्तिमय मातृ पियारी।।
अखिल निखिल ब्रह्मांड मातृमय।
सुयश सुफल शिव -शिवा प्रेममय।।

माता का ही पूजन करना।
आजीवन तुम सहज चमकना।।
माँ का बस आशीष चाहिए।
झुका हुआ यह शीश चाहिए।।

माँ दे देकर सारा जीवन।
गढ़ती रहती शिशु मन-उपवन।।
माँ से शिशु मानव बनता है।
सुंदर जगती को गढ़ता है।।

मातृ शक्ति को सदा जानना।
माँ के भावों के गुण गाना।।
माँ का बस आशीष चाहिए।
झुका रहे यह शीश चाहिए।।

90- कंगना (भोजपुरी गीत)

गोरी तोर कंगना मन ललचावै।
अखियन के हमरे बहुत तरसावै।।
नरमी कलैया पर बहुत नीक लागै।
सजना के जियरा के खूब लुभावै।।
चलल जाय गोरिया गंगा नहाये।
बाबा भोले नाथ जी क दरशन पाये।।
चहकत ऊ जात बाय चमकत कंगनावा।
गोरिया बा उछलत हो अपने अंगनवा।।
मोहत बाय आज गोरी क गउवां ।
बहुत मजा दे ला हो चमकत कंगनवां।।
गोरी क मुखड़ा बहुत चमकीला।
लगत कपोल पर प्रेम रंग पीला।।
गोरिया की बोली से रस टपके।
गोरिया के देख सबकर मन लपके।।
गोरिया न देखै केहू के।
गोरिया त खींचे मन सब के।।
जवन सोनार गढ़लेस गोरी क कंगना
केतना खुशकिस्मत बा ओकर सोना।।
गोरी के कंगना पर दुनिया बा लट्टू।
सब हो गयल बाय गोरिया क पिट्ठू।।
गोरी मस्तानी अदा में चलत बा।
गोरिया के कंगना पर दुनिया फिदा बा।।

91- रावत तेरा नाम अमर है
(सरसी छन्द) (16/11)

जिसके चल जाने पर जगती, रोती वही महान ।
श्रद्धा सुमन नित्य चढवाता, बन निश्चित भगवान।।

चलता रहता ब्रह्मलोक को, वह सूरत अधिमान।
सकल देश का रक्षक-सेवक, बन कर रखता ध्यान।।

निष्कामी कर्मठ योगी बन, रचता दिव्य विधान।
अपना ही सर्वस्व लुटा कर, देत दान का ज्ञान।।

साहस अरु उत्साहपूर्ण वह,भरता सबमें जोश।
विकृतियों को सतत मार कर, कर देता बेहोश।।

शानी बन कर रहता जग में, करता उत्तम काम।
मानवता के लिए सनर्पित, मानव उसका नाम।।

धरती पर जब तक रहता है, ऊँचा उसका भाल।
नतमस्तक हो शीश झुकाता, उसके आगे काल।।

परम विशिष्ट सभ्य प्रिय सूखकर, राम वतन तन लौह।
रावत विपिन सुशासक त्यागी,टेढ़ी हरदम भौंह।।

जीवन सफल बनाकर जाता, दुनिया करती याद।
राह एक गह चला बटोही, किया शुचिर फरियाद।।

पूजनीय महनीय कर्मरत,वीर बहादुर शूर।
रावत विपिन सदा सुखदायक, स्वयं अमर भरपूर।।

राष्ट्र भक्त अद्भुत जननायक, सदा रहेंगे संग।
सतत बहेंगे सब की खातिर, जैसे पावन गंग।।

आये थे बन भारतवासी,बने सभ्य सिरमौर।
भारत में ही प्राण बसा था,भारत ही बस ठौर।।

कभी नहीं भूलेगा भारत,रावत-भारत एक।
रचा अमर इतिहास सुहाना, योद्धा रावत नेक।।

तुझे भुलाना सदा असंभव, भैया विपिन सपूत।
तुझसे ही यह देश चलेगा, आओ बन कर दूत।।

92- अग्रदूत

अग्रदूत बन बढ़ो कुशाग्र बुद्धियुक्त हो।
कभी कदम रुके नहीं समग्र भावयुक्त हो।।

नौजवानियत का भाव बरकरार हो सदा।
दिव्य भावमय बने बढ़े चलो बढ़ो सदा।।

प्राण की न चिंतना कभी करो मुनिप्रवर।
धैर्य की मिसाल बन चलो सदैव सत्य पर।।

भोगरोग नाश का उपाय नित्य मानसिक।
स्वस्थ मन से काम करो हो सदैव मानुषिक।।

प्यार की लकीर खींच, जाप कर मनुष्य का।
वर्तमान पुष्ट कर सदैव हुं भविष्य का।।

गजेंद्र मोक्ष पाठ पढ़ सदैव विष्णु भाव बन।
रक्षणाय धर्म हेतु बोल नित्य शिव वचन।।

सत्यवाद धर्मवाद प्रेमवाद भक्तिवाद।
जिंदगी सजेधजे फलेफुले बिना विवाद।।

असत्यता की कोठरी में भव्य दीप नित जले।
रहे उजास हर जगह सदा विवेक-बुधि फले।।

उमंगता की नींव पर खड़ी रहे सजीवता।
वीरता के भाव में बहे सदैव भव्यता।।

शुद्धता के भाव का सदा उजागरण रहे।
धन्य देश भूमि भारतीय संस्कृती बहे।।

93- सजल

बात करने का मन क्या नहीं कर रहा?
यह जमाना न जाने किधर जा रहा??

कल तक वादे पर वादे तुम करते रहे।
आज बदला हुआ मन बहुत लग रहा।।

आँख में आँख डाले लगे थे गले।
आज नजरें छिपाये चला जा रहा।।

याद करते थे दिन-रात माला लिये।
आज मन इतना बहका सा क्यों लग रहा??

पूछता मन है तुझसे यही प्रश्न इक।
क्या नहीं प्यार करने का मन कर रहा??

कोई बेहतर मिला हो तो ये भी बता।
ये बता आखिर ऐसा ये क्यों हो रहा??

कसमें-वादे अधूरे सिमट से गये।
दिल का दरवाजा टूटा सा अब लग रहा।।

आभास स्वप्निल जगत झूठ है।
प्रेम का अब बस नाटक यहाँ हो रहा।।

94- साहस (आल्हा शैली )
मात्रा भार 16/15

साहस में होती ऊर्जा है,
साहस करता बहुत कमाल।
मस्तक को ऊँचा रखता है,
साहस से डरता है काल।
साहस बनता जीवन रक्षक,
साहस खुद है जीवन-पाल।
साहस बिन जीवन दूभर है,
साहस देता विपदा टाल ।
साहस को हनुमान समझना,
लंका दाहक इसकी चाल।
जिस मानव में साहस होता,
वह बनता सबका रखवाल।
जीवन की यह स्वर्ण-संपदा,
सदा चमकता इसका भाल।
साहस ही संरक्षक बनकर,
रखता यह निर्बल का ख्याल।
साहस में ही वीर छिपा है,
यही चूमता नभ-पाताल।
साहस से जब करुणा मिलती,
दिख होता है मालामाल।
साहस चलता तीव्र वेग से,
कायर हो जाता बेहाल।
मत पूछो साहस क्या होता?
यही फोड़ता पतित-कपाल।
पावन साहस के आगे जग,
झुक जाता निश्चित तत्काल ।
जिसमें साहस भरा हुआ है,
वही सिंधु शेष नद-ताल।
साहस में गंभीर भाव है,
अन्य बजाते केवल गाल।
साहस से जंगल में मंगल,
जब यह देता डेरा डाल।

95- सरसिज छंद
मात्रा भर 11/16

होता तब उत्थान, मन में जब संकल्प अटल हो।
मिलता सुखद मुकाम, बढ़ते रहना सतत सरल हो।।

जीवन हो खुशहाल, क्रमशः आगे-आगे चलना।
धरो प्रगति की राह, नहीं विवाद किसी से करना।।

हो संयम पर ध्यान, मितव्ययी बनकर जीना है।
रख उपयोगी भाव,मधुमय हाला को पीना है।।

आगे को ही देख, पीछे मुड़ना पाप समाना।
नियमित बनना सीख,अपने को अति सजग बनाना।।

आँख-कान-मुँह बंद, गाँधी का बंदर बन जाओ।
बनते जा सम्पन्न,खुद भी खाओ और खिलाओ।।

मानवता मत भूल, सबकी सेवा करते रहना।
बन मोहक इंसान, सदा भलाई करते चलना।।

अत्याचार विनाश, शिष्टाचारी मानव बनना।
मन-समाज को स्वस्थ, सहज बनाते चलते रहना।।

96- सॉनेट

काम-वासना त्याग के,लिये करो अभ्यास।
करना सतत प्रयास, निरन्तर सधते जाओ।
साधन पथ को छोड़ मत,मन में हो उल्लास।
सत्व भावनायुक्त, ध्वजा नभ में लहराओ।

पावन कर्म करो सदा, अहंकार को त्याग।
जनवादी हो भाव, मानवता को पूज नित।
मनमैलापन दूर कर, सुंदर मन में जाग।
सजा रहे मन साफ, सर्वोपरि हो दलित हित।

नायकत्व के यान पर, चढ़ कर छू आकाश।
सुंदर वृत्ति पवित्र, सदा मन में नित जागे।
देखो सारे लोक को, बनकर भानु प्रकाश।
शुभ हों दिल के भाव, अमंगल मन से भागे।

दुखियों की सेवा करो, बहे पुण्य का भाव।
हो नैतिक उपचार, धुल जायें दुख के घाव।

97- सॉनेट
(सरसी और सोरठा का मिश्रण)

देख परिंदों की हरकत को, देते हैं सन्देश।
रहना सीख स्वतंत्र, उड़ते जाओ गगन तक।
फितरतवाजी त्याग चला कर, मानो प्रिय उपदेश।
रहो नित्य मनमस्त,पार करो जीवन शतक।

उड़ते रहते नील व्योम तक, दिखते हैं खुशहाल।
बन निसर्ग का दूत, जीवन जीते प्रेमवत।
मस्ताना अंदाज मनोरम, सुखमय जीवन-काल।
सदा प्रकृति संसर्ग,ही अच्छा इनको लगत।

इन्हें झुंड से प्यार सदा है, रहते नित्य प्रसन्न।
है समाज का ज्ञान, सामाजिक जीवन सहज।
भ्रमणशील बनकर चलते हैं, पा जाते हैं अन्न।
खलता नहीं अभाव, दाना-पानी बस महज।

उदर भरण से मतलब रखते, मुखड़ा मोहक भव्य।
नहिं पूँजी की चाह,ये नित अतिशय प्रिय नव्य।

98- स्वर्णमुखी (सॉनेट)

कर्मठ मानव सदा धनी बन,बढ़त अग्र की ओर।
मस्तक पर है तेज, अर्थ पसीना बन कर बहता।
सतत कर्म की पूजा करता, पकड़ कर्म की डोर।
श्रम ही केवल साध्य, श्रमिक बना वह चलता रहता।
श्रम का करता दान सदा है, श्रम में ही सम्मान।
करता रहता काम, कभी नहीं वह श्रम से डरता।
कर्मवीर सा कर्म पंथ पर, दिखता बहुत महान।
देता सबको ज्ञान, श्रमशिक्षक बन दुख को हरता।
श्रम ही उसका सच्चा ईश्वर, श्रम में उसका प्राण।
श्रम पर केवल ध्यान, श्रम की करता सदा बड़ाई।
सदा खोजता श्रम में जीवन, श्रम से ही कल्याण।
श्रम का जानत मूल्य, श्रम की करता नित्य पढ़ाई।

सत्य परिश्रम से मिलता है, प्रिय लक्ष्मी का धाम।
श्रम को जिसने गले लगाया, हुआ उसी का नाम।

99 स्वर्णमुखी छंद

स्वर्णमुखी मधु गीत सुहावन, अति प्रिय मधुमय भाव।
उत्तम प्रियमय रूप, बहता सहज सुगंध अपारा।
चौदह पद की यह रचना है,छोड़त दिव्य प्रभाव।
मोहनीय विस्तार, इस पर मोहित यह संसारा।

सुमुखी सहज सलोनी कविता, रूपसि सरल महान।
दिव्य गगन है धाम, चौदह भुवन चला करती है।
सरसी -सरसिज शिव मनभावन, समरस सरस विधान।
शेक्सपियर का भाव, छंद विधा सुंदर लगती है।

गीत बहुत मनमोहक अनुपम, कंचन इसका देह।
खुश होता संसार, अद्वितीय इसकी संरचना।
रचनाकारों का यह जीवन, स्वर्णमुखी प्रिय गेह।
रचना यह अनमोल, पावन करती इसकी वचना।

स्वर्णमुखी कविता जो लिखता,कहलाता विद्वान।
सभी पदों से टपकाता हैं,कमल-सुमोहक ज्ञान।

100- स्वर्णमुखी छंद

सद्विवेक सद्ज्ञान मिलेगा।
नैतिकता की राह पकड़ कर।
मन में उत्तम भाव खिलेगा।
भागेगा जब दंभ हड़क कर।

जिसने चाहा मानव बनना।
सुनी गयी फरियाद उसी की।
जिसकी चाहत में है सुनना।
आती रहती याद उसी की।

सेवक जैसा मृदुल आचरण।
धरती पर पद चिह्न छोड़ता।
बनता जग में मधुर व्याकरण।
कविता की वह दिशा मोड़ता।

जिसका पावन भाव सुहाना।
उस पर सारा जग दीवाना।

Language: Hindi
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