क्यों अपने रूप पर …….
क्यों अपने रूप पर …….
क्यों अपने रूप पर
ऐ चाँद तू इतराया है
तू तो मेरे चाँद का
बस हल्का सा साया है
केसरिया है रूप तेरा
केसरिया परछाईं है
कौमुदी ने पानी में
प्रीत की पेंग बढ़ाई है
विभावरी का स्वप्न है तू
चांदनी का प्यारा है
पानी में तेरा अक्स
बड़ा हसीँ छलावा है
अक्स नहीं यकीं है वो
इन बाहों को जो भाया है
ख़्वाब है मेरी नींद का वो
हकीकत में हमसाया है
अपने हाथों से खुदा ने
मेरे चाँद बनाया है
क्यों अपने रूप पर
ऐ चाँद तू इतराया है
सुशील सरना/